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________________ विवेक १९९ दुःख है । तुम अज्ञानी नहीं, मोहान्ध भी नहीं, साथ ही शरीरधारी नहीं ।" ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त होते ही मुक्ति की मंजिल शनैः शनैः निकट आती जाती है । आत्मज्ञानफलं ध्यानमात्मज्ञानं च मुक्तिदम् ।। आत्मज्ञानाय तन्नित्यं यत्नः कार्यों महात्मना ॥ - अध्यात्मसार आत्मज्ञान हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए । सिर्फ आत्मा को जान लो। शेष कुछ जानने की आवश्यकता नहीं है। आत्मज्ञान के लिए ही नौ तत्त्वों का ज्ञान हासिल करना जरूरी है। जो आत्मा को न जान पाया, वह कुछ भी न जान पाया । कर्मजन्य विकृति को आत्मा में आरोपित कर ही अज्ञानी जीव भवसागर में प्रायः भटकते रहते हैं। अतः भेद-ज्ञान, आत्म-ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक है। यथा योधैः कृतं युद्धं स्वामिन्येवोपचर्यते । शुद्धात्मन्यविवेकेन कर्मस्कन्धोजितं तथा ॥१५॥४॥ अर्थ : जिस तरह योद्धाओं द्वारा खेले गये युद्ध का श्रेय राजा को मिलता है, ठीक उसी तरह अविवेक के कारण कर्मस्कन्ध का पुण्य-पाप रुप फल, शुद्ध आत्मा में आरोपित है। विवेचन : सैनिक युद्ध करते हैं और सैनिक ही जय-पराजय पाते हैं। लेकिन प्रजा यही कहती है : “राजा की जय हुई अथवा पराजय हुई" अर्थात् सैनिकों द्वारा प्राप्त विजय का श्रेय उनके राजा को मिलता है। उसी तरह सेना की पराजय भी राजा की पराजय कही जाती है। इसी तरह कर्म-पुद्गल रुप पाप-पुण्य का उपचय-अपचय अविवेक करता है, फिर भी उसका उपचार शुद्ध आत्मा में किया जाता है। अर्थात् 'आत्मा ने पुण्य किया और आत्मा ने पाप किया ।' कर्म-जन्य भावों का कर्ता आत्मा नहीं बल्कि आत्मा तो स्वभाव का कर्ता है । लेकिन आत्मा और कर्म परस्पर इस तरह ओत-प्रोत हो गये हैं कि कर्मजन्य भावों का कर्तृत्व आत्मा में भासित होता है। यही हमारी अज्ञानावस्था है, जो जीव के भवभ्रमण का कारण है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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