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________________ १५. विवेक यहाँ संसार के व्यवहार में उपयोगी "विवेक" की बात नहीं है, बल्कि भेद-ज्ञान के विवेक की बात है। कर्म और जीव की जुदाई । भिन्नता का ज्ञान कराए वह विवेक । अनादिकाल से अविवेक के प्रागढ़ अन्धकार में खोये जीव को यदि विवेक का प्रकाश प्राप्त हो जाए तो उसका काम बन जाए ! परम विशुद्ध आत्मा में अशुद्धियाँ निहारना यह भी एक प्रकार से अविवेक ही है। विवेक के प्रखर प्रकाश में तो सिर्फ आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था का ही दर्शन होता है । इसके अपूर्व आनन्द का अनुभव करने के लिए प्रस्तुत अष्टक को ध्यानपूर्वक दो-तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए और उसका चिंतनमनन करना चाहिए। कर्म जीवं च संश्लिष्टं सर्वदा क्षीरनीरवत् ।। विभिन्नीकुरुते योऽसौ मुनिहंसो विवेकवान् ॥१५॥१॥ अर्थ : दूध और पानी की तरह ओत-प्रोत बने जीव और कर्म को जो मुनि रूपी राजहंस सदैव अलग करता है, वह विवेकवन्त है। विवेचन : जीव और अजीव का जो भेद-ज्ञान, वह है विवेक । कर्म और जीव एक दूसरे में इस तरह ओत-प्रोत हैं, जिस तरह दूध और पानी ! आज ही नहीं बल्कि अनादिकाल से परस्पर ओत-प्रोत हैं । उन्हें
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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