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________________ मोक्खपाहुड (मोक्षप्राभृतम्) णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण झडियकम्मेण । चइदूण य परदव्वं णमो णमो तस्स देवस्स ॥ ३३६ ॥ पर-द्रव्य को छोड़कर और अपने कर्मों का क्षय करके जिसने ज्ञानमय आत्मा को उपलब्ध किया है उस देव को मैं नमन करता हूँ, नमन करता हूँ। णमिदूण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं । वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ॥ ३३७॥ जो देव अनन्त ज्ञान, दर्शन से सम्पन्न और शुद्ध है तथा जिसका पद परम उत्कृष्ट है उस देव को नमस्कार करके परम योगी मुनिराजों के लाभ के लिए मैं उसका (उस देव परमात्मा का) वर्णन करूँगा। जंजाणिदूण जोदि जोअत्थो जोइदूण अणवरयं । अव्वाबाहमणंतं अणोवमं लहदि णिव्वाणं ॥ ३३८ ॥ योग में अवस्थित योगी उस परमात्मा को जानकर और उसे निरन्तर अपने अनुभव में गोचर करके बाधारहित, अनन्त और अनुपम निर्वाण को प्राप्त करता है। तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो हु देहीणं । तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवाएण चइवि बहिरप्पा ॥ ३३६ ॥ प्राणधारियों की आत्मा के तीन प्रकार हैं- परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा। बहिरात्मपन को छोड़कर अन्तरात्मा से परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। 89
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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