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________________ अप्पा अप्पम्मिरदो रायादिसु सयलदोसपरिचतो । संसारतरणहेदू धम्मो ति जिणेहिं णिद्दिढ ॥२५॥ जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं कि आत्मा के राग आदि सभी दोषों से रहित होकर आत्मा में ही रत होने से व्यक्ति संसार सागर से पार उतर जाता है। अद पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि णिरवसेसाई । तह विण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ॥२५६॥ जो व्यक्ति आत्मा का भावन नहीं करता और तमाम पुण्यों को करता रहता है उसे सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त नहीं होती। जिनागम में कहा गया है कि वह अनन्त संसारी होता है। एएण कारणेण यतं अप्पा सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिजह पयत्तेण ॥२५७॥ इसलिए कहते हैं कि मनवचनकाय से उस आत्मा की श्रंद्धा करो, उसे प्रयत्नपूर्वक यथार्थतः समझो ताकि मोक्ष प्राप्त कर सको। मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गदो महाणरयं । इस णाउं अप्पाणं भावह जिणभावणं णिच्चं ॥२५८।। चावल बराबर शरीर वाले छोटे से मत्स्य को भी अशुद्ध भाव के कारण सातवें नरक (महानरक) में जाना पड़ा। इसलिए जिनेन्द्र भगवान् की भावना को समझकर निरन्तर आत्मा का ही भावन करना चाहिए। बाहिरसंगच्चाओ मिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलोणाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं ॥२५॥ यदि व्यक्ति भाव रहित है तो उसका बाह्य परिग्रह का त्याग, पर्वत की गुफा या नदी, कन्दरा आदि स्थानों में निवास और सम्पूर्ण ज्ञान का अध्ययन निरर्थक है। 70
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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