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________________ पासत्थभावणादो अणाइकालं अणेयवाराओ । भाऊण दुहं पत्तो कुभावणाभावबीएहिं ॥ १८४ ॥ जीव, अनादिकाल से अनन्त बार पार्श्वस्थ भावना (मुनित्व को आजीविका का साधन बनाना) के कारण तुझे कुभावनाओं के बीजों से सदैव दुःख ही प्राप्त हुआ है। देवाण गुण विहूई इड्ढी माहप्प बहुविहं दटुं । होण हीणदेवो पत्तो बहु माणसं दुक्खं ॥ १८५ ॥ हे जीव, हीन देव के रूप में जन्म लेकर भी तू अन्य देवों के गुण, विभूति, ऐश्वर्य और बहुविध माहात्म्य को देखकर अतिशय मानसिक दुःख झेलता रहा। चउविहविकहासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्थो । हो कुदेवत्तं पत्तो सि अणेयवाराओ || १८६ ॥ हे जीव, तू चार प्रकार की विकथाओं में आसक्त रहा, मद में चूरं रहा और अशुभ भावों को प्रकट करने के प्रयोजन से तूने अनेक बार कुदेव के रूप में जन्म लिया । असुईबीहत्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि । वसिओ सि चिरं कालं अणेयजणणीण मुणिपवर ॥ १८७॥ हे मुनिप्रवर, बार बार जन्म लेने से तू अनेक माताओं के अपवित्र, घिनौने और मलिन मल से भरे हुए गर्भ में बहुत समय तक रहा। पीओ सि थणच्छीरं अणंतजम्मंतराई जणणीणं । अण्णाण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं ॥ १८८ ॥ हे महायशस्वी, अनन्त जन्मान्तरों में जन्म लेकर तूने अन्य अन्य माताओं का जितना पिया वह समुद्र के जल से भी ज़्यादा है। दूध 53
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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