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________________ परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुंचेदि बाहिरे य जदि । बाहिरगंथच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणदि ॥ १७५ ॥ यदि व्यक्ति (मुनि बनकर) बाह्य परिग्रहों को छोड़ देता है लेकिन उसके भाव अशुद्ध बन रहते हैं तो ऐसे शुद्ध भाव से रहित व्यक्ति को सिर्फ बाह्य परिग्रह के त्याग से क्या मिलने वाला है? जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिदेण । पंथिय सिवपुरिपंथं जिणउवइ8 पयत्तेण ॥ १७६ ॥ हे मोक्षमार्ग के पथिक, भाव को प्राथमिक मान। जिनेन्द्र भगवान् ने मोक्ष का यही मार्ग प्रयत्नपूर्वक बताया है। भावरहित स्वरूप से तुझे क्या लेना देना ? भावरहिदेण सपुरिस अणादिकालं अणंतसंसारे । गहिउज्झियाई बहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाइं ॥१७७ ॥ हे सत्पुरुष, तूने भाव रहित रहते हुए इस अनादि काल और अनन्त संसार में बाह्य परिग्रहों को पता नहीं कितनी बार तो छोड़ा और कितनी बार ग्रहण किया। लेकिन तेरे हाथ कुछ भी तो नहीं आया। भीसणणरयगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए । पत्तो सि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीव! ॥ १७८ ॥ हे जीव, तूने भयंकर नरकगति में, तिर्यंचगति में और कुदेव, कुमनुष्य गति में भारी दुःख भोगे हैं। अब तो जिनभावना अर्थात् शुद्ध, आत्मस्वरूप की भावना का भावन कर। 51
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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