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________________ धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता । देवो ववगयमोहो उदयकरो भव्वजीवाणं ॥ १३३ ॥ दया से निर्मल धर्म, तमाम परिग्रहों से रहित प्रव्रज्या और सभी मोहों को नष्ट कर चुके देव ही जीवों का उदय (उन्नति) करने वाले हैं। वयसम्मत्तविसुद्धे पंचेंदियसंजदे णिरावेक्खे । ण्हाएउ मुणी तित्थे, दिक्खासिक्खासुण्हाणेण ॥ १३४ ॥ व्रत और सम्यक्त्व से शुद्ध, पंचेन्द्रिय विषयों में संवर सहित यानी संयत, यशसम्मान-लाभ आदि मामलों में तटस्थ (निरपेक्ष) ऐसे आत्मस्वरूप तीर्थ में मुनि को शिक्षा दीक्षा रूप स्नान करना चाहिए। जं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं तवं णाणं । तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि सतिभावेण ॥ १३५॥ जिनमत में निर्मल श्रेष्ठ धर्म (उत्तम क्षमा आदि), सम्यग्दर्शन, संयम, तप और ज्ञान ही तीर्थ हैं और ये भी तभी तीर्थ हैं जब हम शान्त भाव से बिना कषायों के इन्हें अपने जीवन में उतारें। णामे ठवणे हि य संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया । चउणागदि संपदिमं भावा भावंति अरहतं ॥१३६ ।। नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, स्वगुण, पर्याय, च्यवन, आगति और सम्पदा ये तमाम भाव अरिहन्त का परिचय देते हैं।
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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