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________________ पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता । होंति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ॥ १०४॥ जिनेन्द्र भगवान् द्वारा भाषित ज्ञान का जल पाकर जो व्यक्ति निर्मल भावों से भर उठते dada लोक के चूड़ामणि और मोक्षमंदिर में रहने वाले सिद्ध परमेष्ठी बनते हैं । णागुणेहिं विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं लाहं । इय णा गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहि ॥ १०५ ॥ ज्ञान गुण के बिना व्यक्ति को अपना वांछित लाभ नहीं मिलता। इसलिए इस विषय गुण दोष समझकर उसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । चारित्तसमारूढो अप्पासु परं ण ईहए णाणी । पाव अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो ॥ १०६ ॥ जो व्यक्ति सम्यग्ज्ञानी है और सम्यक् चारित्र का भी धनी है वह अपनी आत्मा में कभी परपदार्थ की इच्छा नहीं करता । उसे असन्दिग्ध रूप से शीघ्र ही अनुपम सुख प्राप्ति होती है। एवं सखेवेण य भणिदं णाणेण वीयराएण । सम्मत्तसंजमासयदुण्हं पि उदेसियं चरणं ॥ १०७ ॥ इस प्रकार वीतराग भगवान् ने संक्षेप में सम्यग्ज्ञान को कहकर सम्यग्दर्शन और संयम आश्रयभूत चरित्र को दो प्रकार (सम्यक्त्वाचरण तथा संयमाचरण) से प्रतिपादित किया है। 34
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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