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________________ जिणणाणदिट्ठिसुद्धं पढ़मं सम्मत्तचरणचारित्तं । विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि ॥ ६८ ॥ पहला प्रकार तो जिनेन्द्र भगवान् के ज्ञान, दर्शन से शुद्ध किया गया सम्यक्त्व का आचरण है और दूसरा प्रकार संयम का वैसा आचरण है जैसा जिनेन्द्र भगवान् ने आगम में कहा है। एवं चिय णादूण य सव्वे मिच्छत्तदोस संकाइ । परिहर सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण ॥ ६६ ॥ इस प्रकार (पूर्वोक्त प्रकार) से सम्यक्त्व को जानना चाहिए और उसे मलिन करने वाले शंका आदि मिथ्यात्व जनित तमाम दोषों को मन, वचन,काय से छोड़ देना चाहिए। णिस्संकिय णिकंखिय णिव्विदिगिंछा अमूढदिट्ठी य । . उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ ॥ ७० ॥ सम्यक्त्व यानी सम्यग्दर्शन के आठ अंग है- निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़ दृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना। तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाएं। जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ॥ ७१॥ जिनेन्द्र भगवान् के प्रति ऐसी श्रद्धा का होना जो निःशंकित आदि गुणों से निर्मल है और ज्ञान के साथ आचरण में उतरी है सम्यक्त्वाचरण चारित्र है। यह मोक्ष प्राप्ति का साधन और प्रमुख सम्यग्दर्शन है। 26
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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