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________________ दुइयं च उत्त लिंग उक्किट्ठ अवरसावयाणं च । भिक्खं भमेइ पत्ते समिदीभासेण मोणेण ॥५७ ॥ दूसरा वेश (ग्यारह प्रतिमाधारी) उत्कृष्ट अगृही श्रावक का होता है। वह ईर्या समिति के साथ मौन धारण किए हुए करभोजी आहार के लिए भ्रमण पर निकलता है। लिंग इत्थीण हवदिभुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि । अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेदि ॥५८ ॥ तीसरा वेश आर्यिका और क्षुल्लिका का होता है। वे दिन में एक बार भोजन करती हैं और अगर आर्यिका होती हैं तो केवल एक वस्त्र धारण करके भोजन करती हैं। ण वि सिज्झदि वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥ ५६ ॥ जिन शासन का मत है कि वस्त्रधारी को, भले ही वह तीर्थंकर हो, मोक्ष नहीं मिलता। नग्नत्व ही मोक्ष का मार्ग है। शेष सभी उन्मार्ग हैं। लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु । भणिदो सुहुमो काओ तासिं कह होदि पव्वज्जा ॥६० ॥ स्त्रियों की योनि, स्तनों के मध्यदेश, नाभि और बाहुमूल (कांखों) में दृष्टिअगोचर सूक्ष्मकाय जीवाणु कहे गए हैं। इसलिए स्त्रियों की (महाव्रत रूप) दीक्षा कैसे हो सकती है? 22
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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