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________________ उक्किट्ठसीहचरियं बहुपरियम्मो य गरुयभारो य । जो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छंदि होदि मिच्छत्तं ॥ ४५ ॥ जो व्यक्ति भले ही उत्कृष्ट शेर की तरह आचरण करता हो, बहुत परिकर्म अर्थात् तपश्चरण आदि क्रियाएं करता रहता हो, ऊँचे पद पर बड़े दायित्वों को संभालता हो लेकिन अगर जिनसूत्र से च्युत है यानी अगर जिनसूत्रों के अनुरूप न चलकर स्वच्छन्द विहार करता है तो पाप और मिथ्यात्व ही उसके हिस्से में आते हैं। णिच्चेलपाणिपत्तं उवइ8 परमजिणवरिदेहिं। एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे ॥ ४६ ॥ परमदेव जिनेन्द्र भगवान् ने वस्त्र रहित शरीर, करपात्र द्वारा आहार का जो उपदेश दिया है वही एकमात्र मोक्षमार्ग है। शेष सभी अमार्ग हैं। जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिगहेसु विरओ वि । सो होइ वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए ॥ ४७ ॥ जो संयम से युक्त और आरम्भ आदि परिग्रहों वे विरत हैं वे ही सुर, असुर और मनुष्य लोक में वन्दनीय हैं। जे बावीसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता। .. ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू ॥ ४८ ॥ जो साधु बाईस परिषहों को सौगुनी शक्ति के साथ सहन करते हुए अपने कर्मों की निर्जरा करते हैं वे वन्दनीय होते हैं। 20
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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