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________________ कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं । सम्मइंसणरयणं अग्घेदि सुरासुरे लोगे ॥ ३३ ॥ भगवान् के गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों की परम्परा से जीव को निर्मल सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। अर्थात् वह तीर्थंकर पद को प्राप्त करता है। सम्यक्त्व यानी सम्यग्दर्शन तो एक ऐसा रत्न है जो देव, दानव और मनुष्यों द्वारा समान रूप से पूज्य है। लक्ष्ण य मणुयत्तं सहिदं तह उत्तमेण गोत्तेण । लक्ष्ण य सम्मत्तं अक्खयसोक्खं य मोक्खं य ॥ ३४ ॥ उत्तम कुल के साथ मनुष्य जन्म और फिर सम्यक्त्व पाकर व्यक्ति मोक्ष का अक्षय सुख पा सकता है। विहरदि जाव जिणिंदो सहसट्ठसुलक्खणेहिं संजुत्तो । . चउतीसअइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिदा ॥ ३५ ॥ केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद एक हजार आठ लक्षणों और चौंतीस अतिशयों से युक्त तीर्थंकर भगवान् जब तक लोक में विहार करते हैं उनका शरीर स्थावर प्रतिमा कहलाता है। बारसविहतवजुत्ता कम्मं खविदूण विहिबलेण सं । वोसट्टचत्तदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ॥३६ ॥ तीर्थंकरों ने बारह प्रकार के तपों से युक्त अपने चारित्र के बल से कर्मों का नाश करके कायोत्सर्ग द्वारा शरीर छोड़कर श्रेष्ठ मोक्ष को प्राप्त किया है। 17
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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