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________________ जो जोडेदि विवाहं किसिकम्मवणिज्जजीवघादं च । वच्चदि रयं पाओ कस्माणो लिंगिरूवेण ॥ ४५० ॥ जो श्रमणवेश धारण करके भी विवाह सम्बन्ध कराता है, खेती, वाणिज्य और जीवघात के कार्यों से जुड़ता है वह पापी नरक में जाता है। चोराण लाउराण य जुद्ध विवादं च तिव्वकम्मेहिं । जंतेण दिव्वमाणो गच्छदि लिंगी णरयवासं ॥ ४५१ ॥ श्रमणवेश धारण करके भी जो चोरों और लफंगों में युद्ध और विवाद कराता है, तीव्रता से कार्य करता है और यन्त्रों से क्रीड़ा करता रहता है वह नरक में जाता है। दंसणणाणचरिते तवसंजमणियमणिच्छकम्मम्मि | पीडयदि वट्टमाणो पावदि लिंगी णरयवासं ॥ ४५२ ॥ श्रमणवेश धारण करके भी जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, संयम, नियम और नित्यकर्मों को नियत समय पर करने में दुःख का अनुभव करता है उसे नरक में निवास मिलता है। कंदप्पाइय वट्टदि करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं। मायी लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ ४५३ ॥ श्रमणवेश धारण करके भी जिसे भोजन में रस और स्वाद की आसक्ति होती है, जो कामभावना / काम सेवन में प्रवृत्त रहता है तथा मायावी और व्यभिचारी है वह पशु है | श्रमण नहीं है। 116 धावदि पिंडणिमित्तं कलहं कादूण भुञ्जदे पिंडं । अवरपरूई संतो जिणमग्गि ण होदि सो समणो ॥ ४५४ ॥ श्रमणवेश धारण करके भी जो आहार के लिए दौड़ लगाता है, परस्पर कलह करते हुए आहार करता है और दूसरों से ईर्ष्या करता है वह जिनमार्गी श्रमण नहीं है ।
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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