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________________ [३१] पापं न लोभादपरं पृथिव्याम् , मानात्परो नास्ति सुदुःखदाता ॥५८॥ यस्यास्ति माया भवदुःखदात्री, तस्यास्ति दुष्टः सततं विचारः। यस्यास्ति चित्ते भवदुःखभीतिः, तस्यास्ति नित्यं निजतत्त्वचिंता ॥५९॥ उत्तरः-इस संसारमें मोहके सिवाय और कोई बंध नहीं है । मोहसे ही सब बंध होते हैं। इसी प्रकार क्रोधके सिवाय अन्य कोई अहित करनेवाला शत्रु नहीं है, लोभके सिवाय अन्य कोई पाप नहीं है और मानके सिवाय अन्य कोई गहरे दुःख देनेवाला नहीं है । इसीप्रकार जिसके हृदयमें संसारभरको दुःखदेनेवाली अथवा अनंत संसाररूप परिभ्रमणमें दुःख देनेवाली मायाचारी विद्यमान है उसके विचार सदा दुष्ट और पापमय ही होते हैं । तथा जिसके हृदयमें संसारके दुखोंसे भय विद्यमान हैं उसके हृदयमें सदाकाल आत्मतत्त्वका चिंतन बना रहता है ॥५८/५९॥ स्वर्गमोक्षसुखं जीवैः केन मूल्येन लभ्यते ! प्रश्नः-हे गुरो! इस जीवोंको स्वर्ग मोक्षका सुख किस मूल्यसे मिल सकता है ?
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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