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________________ [२६] स्वात्मानुभूतिर्वमलास्ति सम्पत् , निजात्मवासोऽस्ति गृहं पवित्रम्। स्वीये पदे वै शयनं सदैव, भक्ष्यं सुतोषः स्वरसश्च पानम् ॥५०॥ उत्तरः-वास्तवमें देखा जाय तो संसारको नाश करनेवाली धृति वा धैर्य ही जीवोंकी माता है, शांति सुख आदिको देनेवाला ज्ञान ही पिता है, निर्मल स्वात्मानुभूति ही इस जीवकी स्त्री है, इस लोक परलोक दोनों लोकों में सदा साथ रहनेवाला धर्म ही बंधु है, उत्तम क्षमा ही दासी है, शम ही दास है, विवेक पुत्र है, दया बहिन है, साधर्मीजन मित्र हैं, और कोमलता ही सखी है । ये सब कुटुंबवर्गके लोग हैं और परलोकमें भी ये सब साथ जाते हैं । अपने आत्मा की निर्मल अनुभूति ही संपदा है, अपने आत्मामें निवास करना ही पवित्र घर है, अपने आत्मपदमें लीन होना ही पवित्र शय्या है, संतोष ही सर्वोत्तम खाद्य पदार्थ है और अपने आत्माका आनंदामृत रस ही पीने योग्य पदार्थ है। ये सब परलोकमें साथ जानेवाले पदार्थ हैं ॥ ४८४९।५० ॥ कीदृशैः क्रियते लोकानाध्ययनमुत्तमम् । प्रश्नः- हे देव ! कैसे मनुष्य उत्तम ध्यान और अध्ययन को कर सकते हैं ?
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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