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________________ [२३०] निःसारे धर्मशून्ये वाऽनुमतिर्नास्ति यस्य च। संसारनाशकोऽयं सोऽनुमतिविरतो भवेत् ॥ ५२९ ये विवाह खेती आदि आरंभके कार्य सांसारिक हैं निंद्य हैं, दुःख और पाप उत्पन्न करनेवाले हैं, अशुभ हैं, व्याधि चिंता आदि को बढाने वाले हैं, साररहित हैं और धर्मरहित हैं, ऐसे कार्यों में जो उत्तम श्रावक अपनी संमति तक नहीं देता उसको जन्म मरण रूप संसारको नाश करनेवाला अनुमतिविरत नामका श्रावक कहते हैं । यह दशी प्रतिमा का स्वरूप है ।। २८-२९ ॥ सर्वसंग परित्यज्य मोहलोभादिकं तथा । संसारतारकं प्राप्य सद्गुरुं शांतिसौख्यदम् ॥५३० तस्माद् व्रतं गृहीत्वेति खण्डवस्त्रं च धारयन् । अनुदिष्टं सदाहारं गृह्णन् गुरुकुले वसन् ॥ ५३१ करोति ध्यानं स्वाध्यायं सर्वथा स्वात्मसाधनं । उत्तमः श्रावकः सोऽयमुद्दिष्टाहारवर्जितः ॥५३२।। ___जो पुरुष समस्त परिग्रहों का त्याग कर तथा लोभ मोहादिका त्याग कर संसार में पार करनेवाले और शांति मुखको देनेवाले श्रेष्ठ गुरुके समीप जाता है, तथा उन से व्रत धारण कर खंडवख धारण करता है, सदा उद्दिष्टरहित
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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