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________________ [२१०] ज्ञात्वेति धार्मिकैभव्यैः पुण्यधर्मप्रवृद्धये। वाच्यं सदभिधानं हि तत्सत्यव्रतमुच्यते ॥ ४६३ __ इस संसार में जहांपर प्रमादके वश होकर असत् वा मिथ्याभापण किया जाता है उसको असत्य भाषण कहते हैं । यह असत्य भाषण बहुत शीघ्र समस्त पापोंको उत्पन्न करनेवाला है । यही समझकर धर्मात्मा भव्य जीवोंको अपने पुण्य और धर्मकी वृद्धि करने के लिये सदा सत्यभाषण ही करना चाहिये । इस सत्यभाषण करनंको सत्याणुव्रत कहते हैं ॥४६२॥४६२।। एवं मिथ्योपदेशं च रहोऽभ्याख्यानकं तथा । कूटलेखक्रियादिश्च न्यासापहार एव च ॥ ६४ साकारमंत्रभेदोऽपि न कार्यों धर्मवत्सलैः । सत्यव्रतातिचाराश्च त्याज्याः स्वात्मप्रशान्तये ॥ इसी प्रकार किसी के मिथ्या उपदेश भी नहीं देना चाहिये, रहोऽभ्याख्यान अर्थात् एकांतमें कहीहुई क्रियाओं को प्रगट नहीं करना चाहिये, युटा लेख नहीं लिखना चाहिये, न्यासापहार अर्थात् किसी की धरोहर को मारना नहीं चाहिये और साकार मंत्रभेद अर्थात् मुख आदि की आकृतिसे किसी के हृदयकी बात जानकर भी उसकी प्रगट नहीं करना चाहिये । इस प्रकार मिथ्योपदेश, रहो।
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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