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________________ [१७६] इस संसारमें तप और ध्यानादिक को सिद्ध करनेवाला श्रेष्ठ बल मद आदि दोषोंके नाश होनेसे और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम होनेसे प्राप्त होता है । यहो समझकर उस प्राप्त हुए बलको धर्मकार्योंमें अथवा जीवोंकी रक्षा करनेमें लगाना चाहिये । जीवोंकी हिंसा करनेमें कभी नहीं लगाना चाहिये। तथा माप्त हुए बलका अभिमान भी कभी नहीं करना चाहिये । ६५ ।। ६६ ।। खात्मवादात्प्रभोर्ध्यानाक्षमाशीलादियोगतः । ऋद्धिर्वाञ्छितदा स्याद्धि मिथ्यामदादिनाशतः ॥ ज्ञात्वेति स्वात्मबाह्यो हि करोत्युद्धेर्मदं मुनिः । धर्मज्ञः स्वात्मनिष्ठो न मददोषोत्करं विदन् ३६८ इस संसारमें जो विभूतियां वा ऋद्धियां प्राप्त होती हैं वे शुद्ध आत्माका स्वाद होनेसे, भगवान जिनेन्द्रदेवका ध्यान करनेसे, क्षमा शील आदिके पालन करनेसे और मिथ्यामदोंके नाश करनेसे प्राप्त होती हैं। यही समझकर जो मुनि आत्मज्ञानसे रहित हैं वेही इन ऋद्धियोंका मद करते हैं । धर्मके स्वरूपको जाननेवाले अपने आत्मा में तल्लीन रहनेवाले और मदके दोषोंको अच्छीतरह जाननेवाले सम्यग्दृष्टी पुरुष इन ऋद्धियोंका वा विभूतियोंका मद कभी नहीं करते ॥ ३६७ ॥ ३६८ ॥
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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