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________________ [१७१] स्वर्मोक्षमार्गातिविनाशकस्य, ह्येकान्तप:रतिदूषितस्य। संगः कुशास्त्रस्य च पाठकस्य, कार्यों न भव्यैः पठनं कदापि ॥३५२॥ शास्त्रे जिनोक्तेऽस्य च पाउके च, न द्वेषबुद्धिश्च कदापि कार्या। ज्ञात्वेत्यपेक्षासहितं जिनोक्तं, ग्राह्यं हि शास्त्रं भुवि बोधनार्थम् ॥३५३ इस संसारमें कुशास्त्र और उनके पढनेवाले लोग स्वर्ग और मोक्षके मार्गको अत्यंत नाश करनेवाले हैं और एकांतपक्षसे अत्यंत दुषित हैं। अत एव भव्यपुरुषोंको कुशाब और उनके पढानेवालोंका समागम कभी नहीं करना चाहिये और न कभी उन शास्त्रोंका पठन पाठन करना चाहिये । इसीप्रकार भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंमें तथा उनके पठन पाठन करनेवालोंमें कभी द्वेषबुद्धि न करनी चाहिये। यही समझकर अपना आत्मज्ञान प्रगट करने के लिये भव्यजीवोंको अपेक्षाकृत नयोंसे सुशोभित ऐसे भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंका सदाकाल पठन पाठन करना चाहिये ५२॥ ५३॥
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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