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________________ [१६९] जीवोंको जिनधर्मसे रहित देवोंकी कभी वंदना नहीं करनी चाहिये ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ स्वात्मच्युतानां विषयाश्रितानां, गृहस्थयोग्यं भवदं च कार्यम् । प्रकुर्वतां क्लेशकरं कुकर्म, पाषंडिनां धर्मविरोधकानाम् ॥३४८॥ मंत्रादिहेतोर्व्यवहारतोऽपि, पूजा प्रशंसा क्रियते च यैर्हि । तेषां भवेदुःखभयं व्यथाद, पाषंडिमूढत्वमिति स्वाभावात् ॥३४९॥ जो पाखंडी वा कुगुरु अपने आत्मज्ञानसे रहित हैं, विषयोंके लोलुपी हैं, धर्मके विरोधी हैं और इस पृथ्वीपर गृहस्थोंके योग्य तथा संसारको बहानेवाले कार्य किया करते हैं अथवा क्लेश उत्पन्न करनेवाले अनेक कुकर्म किया करते हैं ऐसे पाखंडी साधुओंकी जो लोग किसी मंत्रादि के लिये अथवा अपना व्यवहार दिखलाने के लिये पूजा वा प्रशंसा करते हैं उसको स्वभावसेही दुःख और पीडा देनेवाली पाखंडिमूढता कहते हैं ॥ ३४८॥ ३४९॥ साम्प्रतं सद्गुरो ! ब्रूहि षडायतनलक्षणम् ?
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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