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________________ १६२ यह जैनधर्म मोक्षमदान करनेवाला है, इसकी निंदा वा ग्लानि यदि किसी विवेकरहित कृपण गृहस्थसे हो गई हो वा आत्मज्ञानरहित किसी मनिसे होगई हो तो उसको जिनधर्म की अटल श्रद्धा रखनेवाले जो भव्य जीव अपने ज्ञानबलसे अथवा उपदेशरूपी अमतसे अथश श्रेष्ठ दानादिक देकर अवश्य दूर करते हैं । पवित्र जिनधर्म की निंदा कभी नहीं होने देते, उसको शान्ति देनेवाला भ्रांतिको हरण करनेवाला और अत्यंत मनोज्ञ ऐसा उपग्रहन नामका अंग कहते हैं । यह सम्यग्दर्शनका पांचवां अंग है ॥ ३३० ॥ ३३१ ॥ स्वमोक्षदातुर्जिनधर्ममार्गा-, द्रत्नत्रयात्स्वात्मरसात्स्वधर्मात् । भीमे भवाब्धौ पततां जनानां, श्रद्धालभिर्यत्र निजात्मनिटैः ॥३३२॥ ज्ञानामृतधैर्यधनादिदानैः, क्षिप्रं पुनर्जिनधर्ममार्गे । सुस्थापना वा क्रियते स्थितिश्च, स्थितेः सुकार्य भवतीह तेषाम् ॥३३॥ यह जिनधर्मका मार्ग रत्नत्रयस्वरूप है और स्वर्ग मोक्षका देनेवाला है। ऐसे रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गसे अथवा
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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