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________________ [34] जीवोंको यह दानकी विधि अपनी शक्तिके अनुसार सदाके लिए हृदय में धारण कर लेनी चाहिए || २७७-२७८|| संसारबन्धस्य विनाशनार्थं, पलायनार्थं विषयस्पृहायाः । परार्थ तत्त्वामृतपानहेतोः र्दृग्बोधचारित्रविवर्द्धनार्थम् ॥ २७९ ॥ स्वराज्यहेतोः क्रियते च यत्र, स्वेच्छानिरोधः सुखदं तपश्च । तदेव लोके विमलं तपोऽस्ति, कार्यं सदा द्वादशधा भव्यैः ॥ २८० ॥ जन्ममरण रूप संसारके बंधनको नाश करनेके लिए विषयोंकी तृष्णाको भगानेके लिए, परमार्थ तत्त्वकी तलाश करनेके लिए, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारि को बढाने के लिए और आत्मजन्य शुद्ध स्वराज्य प्राप्त करनेके लिए जहांपर सुख देनेवाला इच्छा निरोधरूप तपवरण किया जाता है वही इस संसार में निर्मल तपश्चरण कहलाता है । वह तपश्चरण बारह प्रकारका कहा जाता है । भव्य जीवोंको यह बारह प्रकारका तपश्चरण सदा काल धारण करते रहना चाहिए ।। २७९-२८० ।।
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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