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________________ [ ९९ ] अपने शीलको नहीं छोडती, उत्तम राजा अपनी श्रेष्ठ नीतिको नहीं छोडता और साधु पुरुष अपने अपने धर्मको नहीं छोडते उसी प्रकार इस संसार में सम्यग्दृष्टि पुरुष भी स्तुति वा निंदा करनेपर भी अपने धर्मको कभी नहीं छोड़ते हैं ।। १६२ ॥ १६३ ॥ १६४ ॥ १६५ ॥ कुर्वन्त्यकार्य किं लोके स्वात्मज्ञानपराङ्मुखाः ? प्रश्नः - जो मनुष्य अपने आत्मज्ञानसे पराङ्मुख हैं वे इस संसार में कौन कौनसे अकार्य करते हैं ? विज्ञानशून्या नरजन्मरत्नं, लब्ध्वापि चानन्दपदप्रदं हि । शादियुक्ते विषये भवान्धौ, क्षिपन्ति दीनाश्च कुटुम्बहेतोः ॥ १६६ ॥ चिन्तामणेः कल्पतरोः समानं, श्रीजैनधर्मं मनुजोऽपि लब्ध्वा । सुरक्षणार्थं स्मरकुंजरस्य, रत्नत्रयं सौख्यमयं त्यजन्ति ॥ १६७॥ सद्बुद्धिरत्नं हि धनार्जनार्थं, नियोजयन्ति व्यवहारकार्ये ।
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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