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सप्तविधाः शोधिगुणाः
जह जह सुद्धसहावो, दोसे वियडेइ सम्ममुवउत्तो । तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ ॥४९९५॥ पत्तो मया सुवेज्जो, दुलहो एसो य भाववाहिम्मि । लज्जाऽऽड्या य तुच्छा, वाहिस्स विवड्ढया घोरा ॥ ४९९६ ॥ तावियडिऊण सम्मं, इमस्स चलणंतियम्मि धन्नस्स । काहामि अप्पमत्तो, भवदुक्खनिवारणि किरियं ॥४९९७॥ तह वियडिए य ल्हाई, उप्पज्जइ एव सुद्धभावस्स । धन्नो हं भवगहणे, जेण मए साहिओ अप्पा ॥ ४९९८ ॥ न कुणइ अओऽवराहे, चरणाउ लज्जओ अकिच्चाणं । पायच्छित्तभण य, नियत्तिओ एवमप्पा उ ॥४९९९॥
ट्टू तं सुसाहुं, एव जयंतं परे वि भयभीया । न कुणंति अकिच्चाई, सेवंति य नवरं किच्चाई ॥५०००॥ अप्पपरनियत्तीए, एवं सपरोवयारभावो उ । न य सपरुवगाराउ, महल्लतरयं गुणद्वाणं ॥५००१ ॥ आलोयणाए अज्जव-सोहीओ परमनेव्वुइकरीओ । भवभयनिवारणीओ, पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥ ५००२॥ सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ । निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्ते व्व पावए ॥५००३ ॥ णियडीकिलिट्ठचित्तो, बंधइ कम्मं किलिट्ठमेव बहुं । जीवो पमायबहुलो, किलिट्ठकम्मस्स य नियाणं ॥५००४ ॥ अइसंकिलिट्ठकम्माऽणु-वेयणे जो उ होइ परिणामो । सो संकिलिट्ठकम्मस्स, कारणं जमिह पाएणं ॥ ५००५ ॥ तत्तो य भवविवड्डी, तओ य दुक्खाइं णेगभेयाइं । इइ संकिलेसमूलं, नियडि च्चिय होइ नायव्वा ॥५००६ ॥
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