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________________ 52 : विवेकविलास प्रासादयिभागस्य समाना प्रतिमा मता। उत्तमायकृते सा तु कार्यैकोनाधिकाङ्गला॥ 152॥ जो मन्दिर हो, उसके चतुर्थ भाग के बराबर प्रतिमा बनानी चाहिए किन्तु उत्तम लाभ प्राप्ति के लिए उक्त चतुर्थ भाग में एकाङ्गुल न्यूनाधिक मान रखना चाहिए। अथवा स्वदशांशेन हीनस्याप्याधिकस्य वा। कार्या प्रासादपादस्य शिल्पिभिः प्रतिमा समा॥ 153॥ अथवा देवालय के चतुर्थ भाग के दस भाग करें और उक्त दशमांश में से एक भाग प्रासाद के चतुर्थ भाग में से कम करके अथवा उसमें एक दशमांश भाग जोड़कर उतने प्रमाण की प्रतिमा भी बनाई जा सकती है। सर्वेषामपि धातुनां रत्नस्फटिकयोरपि। प्रवालस्य च बिम्बेषु चैत्यमानं यदृच्छया। 154॥ यदि सर्वधातु (अष्ट धात्वात्मक) निर्मित, रत्न, स्फटिक या प्रवालादि की प्रतिमा हो तो वहाँ प्रतिमा के प्रमाण के लिए प्रासाद के प्रमाण की अपेक्षा इच्छानुसार प्रतिमा का मान रखा जा सकता है। गर्भ भित्ति प्रमाणमाह - प्रसादगर्भगेहार्द्ध भित्तितःपञ्चधाकृते। यक्षाद्याः प्रथमे भागे देव्यःसर्वा द्वितीयके। 155॥ जिनार्कस्कन्दकृष्णानां प्रतिमाः स्युस्तृतीयके। ब्रह्मा तु तुर्यभागे स्याल्लिङ्गमीशस्य पञ्चमे॥ 156॥ देवालय में गर्भार्द्ध के पाँच भाग के अनुसार भित्ति से प्रतिमा स्थापना हो सकती है। उक्त भाग के अनुसार प्रथम भाग में यक्षादि की स्थापना करें, दूसरे भाग में समस्त देवियों की, तीसरे भाग में जिन, सूर्य, कार्तिकेय और कृष्ण की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। इसी प्रकार चतुर्थ भाग में ब्रह्मा की प्रतिमा और पाँचवें भाग में शिवलिङ्ग की स्थापना करनी चाहिए। तथा चान्य दोषादीनां - ऊर्ध्वदृग्द्रव्यनाशाय तिर्यग्दृग्भोगहानये। दुःखदा स्तब्धदृष्टिश्चाधोमुखी कुलनाशिनी॥ 157 ॥ यदि प्रतिमा की दृष्टि ऊँची हो तो द्रव्य का नाश करती है। तिरछी हो तो भोग का नाश होता है। यदि स्तब्ध दिखाई देती हो तो वह दुखद होती है और अधोदृष्टि हो तो कुलनाश करती है।
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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