SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अथ ध्यानस्वरूपनिरूपणं नामाख्यं एकादशोल्लासः : 277 जिस प्रकार तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि, दूध में घृत और फल में सुगन्ध पाई जाती है. वैसे ही देह में जीवात्मा विद्यमान होता है। जीवस्यलक्षणं अस्त्येव नियतो जीवो लक्षणैर्ज्ञायते पुनः। सञ्जाविज्ञानचैतन्यचित्तप्रभृतिभिर्मशम्॥89॥ नियमतः प्रत्येक जीवित शरीर में जीव है ही। वह संज्ञा, विज्ञान, चैतन्य, चित्त इत्यादि लक्षणों से ज्ञात होता है।. पयः पान शिशोभीतिः सङ्कोचिन्यां च मैथुनम्। अशोकेऽर्थग्रहो बिल्वे जीवे सज्ञाचतुष्टयम्॥१०॥ शिशु में दूध को चूसने की, सङ्कोचिनी; वनस्पति में भय (लाजवन्ती की तरह); अशोक वृक्ष में (दोहदादि कारण से) मैथुन और बिल्व वृक्ष में (वर्षभर सार संग्रह से) धन संग्रह की प्रवृत्ति की भाँति जीव में भी चार संज्ञाएँ जाननी चाहिए। इन्द्रियापेक्षया प्रायः स्तोकमस्तोकमेव च। चराचरेषु जीवेषु चैतन्यमपि निश्चितम्॥91॥ स्थावर, जङ्गम जीवों में इन्द्रियों की अपेक्षा से थोड़ा अथवा अधिक चैतन्य प्रायः निश्चय है ही। * ग्रन्थकार का यह निर्देश वनस्पति में जीव की अवधारणा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। जैन मत में यह अवधारणा सुदृढ़ता के साथ प्रकट की गई है। इसने आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के सामने एक आदर्श अनुसन्धान दृष्टि को भी प्रदर्शित किया है। आज का जीवविज्ञान, वनस्पति विज्ञान पौधों और पादपों में जिस श्वसन, जनन, परिवर्तन, परिवर्धन, मुकुलन, पल्लवन, नवीकरण, पोषण और रोग निराकरण की बात करता है, वह समग्र सम्प्रत्यय वृक्षायुर्वेद में सारत: निहित है। भारतीय ग्रन्थों के भुवनकोश और सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी प्रकरणों में वृक्षोत्पत्ति को 'मुख्यसृष्टि' (मुख्य सर्ग) कहा गया है जिसका अर्थ प्रारम्भिक चैतन्य लिया जा सकता है- सर्वतस्तमसा चैव बीजकुम्भलता वृतः। बहिरन्तश्चाप्रकाशस्तथा नि:सज्ञ एव च॥ यस्मात् तेषां कृताबुद्धिर्दुखानि करणानि च। तस्तात् ते संवृतात्मानो नगा मुख्या प्रकीर्तिता ।। (ब्रह्माण्डपुराण 1, 5, 33-34) 'विष्णुपुराण' में कहा गया है कि उद्भिद् (स्थावर) पाँच भागों में विभक्त है और अप्रतिबोधवान है, अर्थात् पेड़ों को स्वयं के विषय में जानकारी नहीं है। शब्दादि बाह्य विषयों के साथ ही सुख, आनन्द आदि भीतरी विषयों में भी यह प्राणी ज्ञान विहीन है। (विष्णुपुराण 1, 5, 6-7) महाभारत में भी कहा गया है कि वृक्ष जीव है तथा उसका प्रादुर्भाव आकस्मिक होता है-भित्वा तु पृथिवी यानि जायन्ते कालपर्ययात् उद्भिज्जानि च तान्याहुर्भूतानि द्विजसत्तमा। इसका बोध शाङ्करभाष्य में है जहां वृक्षों को भूमि से उत्पन्न उद्भिद्य कहा गया है- भूमिं उद्भिद्य जायते वृक्षादिकम्। (शाङ्करभाष्य रत्नप्रभा 3, 2, 21) वृक्षों में जीवन की धारणा यहीं नहीं रही, आगे बढ़ी और विभिन्न प्रकार से वृक्षों में जीवन के अकाट्य तर्क प्रस्तुत किए गए। यह भी कहा गया कि पेड़ कहने को स्थिर लगते हैं किन्तु वे चलिष्णु होते है, वे निरन्तर गतिशील होते हैं। उदयनाचार्य ने वृक्षों को 'अतिमन्द अन्तसंज्ञ' कहा और स्पष्ट किया कि मानव, प्राणियों की तरह ही वृक्ष में गति, जीवन, कर्म होता है। (किरणावली पृष्ठ 57)
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy