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________________ कहा जाता है क्योंकि ऐसे गुण तो नपुंसक में भी होते हैं । अनेकाकारतां धत्ते प्राणी कर्मवशं गतः । कर्ममुक्तस्तु नो धत्ते तमेकाकारमादिशेत् ॥ 27 ॥ यह सनातन सत्य है कि जीव कर्म के प्रभाव से ही अनेक आकार धारण करता है मगर मुक्त हुआ जीव ऐसा नहीं करता। अतएव उस मुक्त जीव को 'एकाकार' कहना चाहिए। मैत्रीभावलक्षणं 5 दुःखी किमपि कोऽप्यत्र पापं कोऽपि करोति किम् । मुक्तिर्भवतु विश्वस्य मतिमैत्रीति कथ्यते ॥ 28 ॥ ऐसी मति को 'मैत्री भावना' कहा जाता है जिसमें यह विचार किया जाता है कि 'इस जगत् में कोई भी जीव दुखी क्यों है; कोई भी जीव पाप क्यों करते हैं और सम्पूर्ण जगत् को मोक्षप्राप्ति हो तो अच्छा है।' प्रमोदभावलक्षणं अथ ध्यानस्वरूपनिरूपणं नामाख्यं एकादशोल्लास : : 267 दोषनिर्मुक्तवृत्तानां धर्मसर्वस्वदर्शिनाम् । योऽनुरागो गुणेषूच्चैः स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥ 29 ॥ निर्दोष आचरण करने वाले और धर्म के सर्व स्वरूप के ज्ञाता सत्पुरुषों कों जिस गुण पर राग हो वह 'प्रमोद भावना' कहलाती है। करुणाभावलक्षणं. भीतार्त्तदीनलीनेषु जीवितार्थिषु वाञ्छितम् । शक्त्या यत्पूर्यते नित्यं करुणा सात्र विश्रुता ॥ 30 ॥ भयभीत, रोगी, दीन और लीन, जीवनार्थी जनोंकी इच्छाओं को यथाशक्ति पूर्ण करना 'करुणा भावना' है, ऐसा शास्त्र प्रसिद्ध है । मध्यस्थभावलक्षणं - मोहात्प्रद्विषतां धर्मं निर्भयं कुर्वतामघम् । स्वाधिनां च योपेक्षा माध्यस्थ्यं तदुदीरितम् ॥ 31 ॥ · मोह के कारण धर्म के द्वेषी, निडर होकर पाप करने वाले और अपने मुख अपनी ही प्रशंसा करने वाले लोगों की उपेक्षा करनी चाहिए अर्थात् उनकी ओर । ध्यान नहीं चाहिए - ऐसी 'मध्यस्थ् भावना' कही जाती है। बहिरात्मान्तरात्माश्चाह - विभवश्च शरीरं च बहिरात्मा निगद्यते । तदधिष्ठायको जीवस्त्वन्तरात्मा सकर्मकः ॥ 32 ॥
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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