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________________ 246 : विवेकविलास अहंयुर्मतिमाहात्म्याद्गर्वितो मागधोक्तिभिः । लाभेच्छु यके लुब्धे ज्ञेया दुर्मतयस्त्रयः। 423 ॥ जो व्यक्ति अपनी ही आत्मप्रशंसा से अहङ्कार दिखाता हो, मागधों के चाटु वचनों से गर्वित होता हो और लोभी स्वामी से लाभ की अभिलाषा करता हो- ऐसे तीनों ही विचार वाले व्यक्ति दुर्बुद्धि ही होते हैं। दुष्टे मन्त्रिणि निर्भीकः कृतघ्रादुपकारधीः। दुर्नाथान्यायमाकाङ्क्षनेष्टवृद्धि लभेत सः॥424॥ जो व्यक्ति दुष्ट मन्त्री से निर्भीक रहे, कृतघ्न मनुष्य से प्रत्युपकार की आशा करे और दुष्ट राजा से न्याय प्राप्ति की इच्छा करे, उसकी उन्नति नहीं होती है। अपथ्यसेवको रोगी सद्वेषो हितवादिषु। नीरोगोऽप्यौषधप्राशी मुभूघुर्नात्र संशयः॥425॥ जो रोगी होकर भी आवश्यक परहेज न रखे, हित चिन्तक से द्वेष करे और रोगी न होने पर ही पूर्व आशङ्का में औषधि सेवन कर जाए तो उनकी मृत्यु आई ही जाननी चाहिए, इसमें कोई संशय नहीं है। शुल्कदोऽपथगामी च भुक्तिकाले प्रकोपवान्। असेवाकृत्कुलमदात्रयोऽमीमन्दबुद्धयः॥426॥ जो कर-शुल्क न देकर गलत रास्ते को चुनता हो, भोजन के समय क्रोध करता हो और जो कुलाभिमान के वश सेवा नहीं करता हो, ये तीनों मन्दबुद्धि ही हैं। मित्रोद्वेगकरो नित्यं धूतॆविश्वास्य वञ्च्यते। गुणीच मत्सरग्रस्तो यस्तस्य विफलाः कलाः॥427॥ जो नित्य ही अपने मित्र में उद्वेग उत्पन्न करे, जिसे धूर्त लोग विश्वास में लेकर ठगते हों, जो स्वयं गुणी होकर भी अन्य गुणियों से ईर्ष्या करता हो- ऐसे तीनों ही लोगों की कला निष्फल ही होती है। चारुप्रियोऽन्यदारार्थी सिद्धेऽन्ने गमनादिकत्। निःस्वो गोष्ठीरतोऽत्यन्तं निर्बुद्धानां शिरोमणिः ॥428॥ जो अपनी स्त्री के चारु होने पर भी परस्त्री की इच्छा करे, रसोई तैयार होने पर अन्यत्र चला जाए या दूसरे किसी काम में रुके और स्वयं दरिद्री होते हुए भी बातें बनाने में रुचिशील हो, ऐसे पुरुष निर्बुद्धि-शिरोमणि होते हैं। धातुवादे धनप्लोषी रसिकश्च रसायने। विषभक्षी परीक्षार्थं त्रयोऽनर्थस्य भाजनम्॥ 429॥ जो कृत्रिम रूप से धातु बनाने की कला (किमियागिरी) में स्वधन खोए, जो
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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