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________________ 194 : विवेकविलास गुरुष्वविनयो धर्मे विद्वेषः स्वगुणैर्मदः । गुणिषु द्वेष इत्येताः कालकूटच्छटाः स्मृताः ॥ 120 ॥ गुरु के प्रति अविनय, धर्म पर द्वेष, अपने गुणों का अभिमान और गुणीजनों से निरन्तर द्वेष- ये बाते कालकूट ( तम्बाकू, विष) के छींटे समान समझनी चाहिए । कलाचार्यस्य चाजस्त्रं पाठको हितमाचरेत् । निःशेषमपि चामुष्मै लब्धं लब्धं निवेदयेत् ॥ 121 ॥ शिष्य को अपने शिक्षक, कलाचार्य का निरन्तर हित साधन करना चाहिए और अपने को जो वस्तुएँ, उपहारादि मिलें वे सब कलाचार्य को प्रदान करनी चाहिए । गुरोः सनगरग्रामां ददाति यदि मेदिनीम् । तथापि न भवत्येव कदाचिदनृणः पुमान् ॥ 122 ॥ शिष्य कदाचित् अपने गुरु को यदि ग्राम, नगर सहित भूमि प्रदान भी करे तो भी वह गुरु के ऋण से उऋण नहीं होता । उपाध्यायमुपासीत मदनुद्धतवेषभृत् । विना पूज्यपदं पूज्यनाम नैव सुधीर्वदेत् ॥ 123 ॥ प्राज्ञ शिष्य को कभी दिखावे के तौर पर उत्कृष्ट पोशाक पहनकर उपाध्याय की सेवा नहीं करनी चाहिए। अपने पूजनीय गुरु का 'पूज्य' पद छोड़कर मूल नाम से परिचय नहीं देना चाहिए बल्कि 'पूज्यपाद' (अनन्तविभूषित, विशेषणजयी गुरुदेव ) इत्यादि पूर्वक गुरु का नामोच्चार करना चाहिए । उक्तं च - 'आत्मनश्च' गुरोश्चैव भार्यायाः कृपणस्य च । क्षीयते वित्तमायुश्च मूलनामानुकीर्तनात् ॥ 124॥ कहा भी गया है कि पुरुष को अपना, अपने गुरु का, अपनी स्त्री का और कृपण का मूल नाम नहीं लेना चाहिए क्योंकि इससे धन और आयु क्षीण होते हैं। अथानाध्यायकालं कथ्यते - - चतुर्दशीकुहूराकाष्टमीषु न पठेन्नरः । मृतकेऽपि तथा राहुग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ॥ 125 ॥ * शिष्य को कभी परोक्ष में भी गुरु का नामोच्चार नहीं करना चाहिए न ही गुरु के चलने, बोलने, चेष्टा, हावभाव आदि की नकल करे – नोदाहरेदस्य नाम परोक्षमपि केवलम् । न चैवास्यानुकुर्वीत गतिभाषितचेष्टितम् ॥ (मनु. 2, 199; तुलनीय भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व 4, 170 ) .
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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