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________________ 148 : विवेकविलास विपरीत स्थानगत ग्रह और बुरे दिवस नहीं होते हैं और प्रसव के समय माता को दुःख भी नहीं होता है। मूलाश्रूषार्थफलमाह - पितुर्मातुर्धनस्य स्यानाशायांत्रियं क्रमात्। . .. शुभो मूलस्य तुर्याहिरश्रूषाया व्यतिक्रमात् ॥ 234...... जन्मकाल में मूल नक्षत्र का पहला, दूसरा व तीसरा चरण क्रमशः पिता, माता एवं धन का नाश करता है। चौथा चरण शुभ होता है। इसके विपरीत आश्लेषा नक्षत्र का पहला चरण शुभ और दूसरा, तीसरा व चौथा चरण क्रमशः पिता, माता व धन का नाश करता है, ऐसा जानना चाहिए।" ही गण्डान्त का त्याग करना चाहिए। नक्षत्र मण्डान्त में नौ 2 के अन्त में 2 घटी, तिथि में पांचवीं 2 के बाद 1 घटी तथा लग्न या राशि गण्डान्त में चौथी 2 के अन्त वाली घटी का त्याग किया जामा चाहिए। आश्लेषा, मूल एवं गण्डान्त की निवृत्ति के लिए अपने निमित्त शुभेच्छु जनों को विधिपूर्वक सूतकान्त में तीसरे मास में अथवा वर्ष के अन्त में, उसी जन्म नक्षत्र में उसकी शान्ति शाक्तोक विधि से करवानी ... चाहिए, ऐसा वशिष्ठ का मत है- नैर्ऋत्य भौजङ्गमगण्डदोषनिवारणायाभ्युदयाय नूनम्। पितामहोक्तां रुचिरां च शान्ति प्रकुर्याद्वंशस्य हिताय नूनम् ॥ शास्त्रोक्तरीत्या खलु सूतकान्ते मासे तृतीयेऽप्यथ वत्सरान्ते। कुर्याच्छान्तिं तदृक्षे वा तद्दोषस्यापनुत्तये॥ (वशिष्ठसंहिता 42, 22 एवं 27-28) .. * *मुहूर्त ग्रन्थों में आया है कि जो शिशु मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्मा हो वह पिता; द्वितीय चरणोत्पन्न पुत्र माता और तृतीय चरणोत्पन्न पुत्र धनादि का क्षय करता है जबकि चतुर्थ चरणोत्पन्न शिशु शुभ होता है। इस के विपरीत आश्लेषा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में जन्मा शिशु पिता के लिए घातक है, तृतीय चरणोत्पन्न शिशु माता के लिए, द्वितीय चरण में उत्पन्न बालक धन का क्षयकारक होता है जबकि प्रथम चरणोत्पन्न शिशु इन सब दृष्टियों से उत्तम होता है। मूलादि नक्षत्र में शिशु के जन्म पर आवश्यक शान्ति करवाएँ-कृच्चाथमूलाज्रिषूत्थ स्ताताम्बाम्वित्तहेष्टोवि- सदृशमहिभे स्नानहोमैश्च शान्तिः ।। (मुहूर्ततत्त्व 3, 6) धाराधिप भोज का कथन है कि गण्डान्त में उत्पन्न जातक को देखना शुभ नहीं होता, अन्य आचार्यों का कहना है कि होम, दान के बाद उसे देखना शुभ होता है-गण्डप्रसूतं पुरुष शुभमाहुरपश्यताम्। अन्ये तु होमपूर्वेण दानेन दर्शनं शुभम्॥ (राजमार्तण्ड 138) यह भी कहा गया है- मूलामघाश्विचरणे प्रथमे च नूनं पौष्णेन्द्रयोश्च फणिनश्चरणे चतुर्थे। मातुः पितुः स्ववपुषोपि करोति नाशं जातो यदा निशि दिनेप्यथ सन्ध्ययोश्च ।। (तत्रैव 135) गर्गसंहिता (पीयूषधाराटीका में 2, 57 पर उद्धृत), ज्योतिर्निबन्ध (पृष्ठ 240), राजमार्तण्ड आदि में नक्षत्रशान्ति की विधि दी गई है। राजमार्तण्ड में निम्न श्लोक मिलते हैं-कांस्यपात्रं प्रकुर्वीत पलैः षोडशभिर्बुधः । अष्टाभिर्वा चतुर्भिर्वा द्वाभ्यां वा शोधनं स्मृतम् ॥ तन्मध्ये स्थापितं शङ्ख नवनीतप्रपूरितम्। राजचन्दनमभ्यर्च्य शतपत्रसहस्रकैः ॥ दैवज्ञः सोपवासश्च शुक्लाम्बरधरः शुचिः । सोमोहमिति सञ्चिन्त्य कुर्यादेवमतन्द्रितः ॥ जपेत्साहस्रिहं जाप्यं श्रद्दधानः समाहितः । दद्याद्वै दक्षिणामिष्टां गण्डदोषोपशान्तये॥ शुद्धचामीकरं दद्यात्ताम्रपात्रं तिलान्वितम्। गण्डदोषोपशान्त्यर्थं ज्योतिर्वेदविदे शुचिः ॥ ॐ अमृतात्मने नमः ।। इति मन्त्रः । (राजमार्तण्ड 143-147) शूरमहाठ शिवराज ने 'ज्योतिस्सारसागर' के मत को उद्धृत करते हुए स्पष्ट किया है कि अश्विनी, मघा व मूल नक्षत्र की 3, 4, 9 आदि घटी का; रेवती, आश्लेषा नक्षत्र की अन्तिम 1, 11, 6 घटियों का त्याग करना चाहिए-अश्विनीपौष्णमूलादौ त्रि वेद नव नाडिका। रेवतीसर्पशक्रान्ते मास-रुद्ररसस्तथा।। (ज्योतिर्निबन्ध पृष्ठ 70, श्लोक 31)
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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