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________________ 142 : विवेकविलास भजेन्नारीं शुचिः प्रीतः श्रीखण्डादिभिरुन्मदः । अश्राद्धभोजी तृष्णादिबाधया परिवर्जितः ॥ 204 ॥ जिस दिन श्राद्ध का भोज नहीं किया हो और तृषा, क्षुधादि शारीरिक वेदना लक्षित नहीं हो, तब कामी को श्रीखण्ड - चन्दन, अगरु, केसरादि का शरीर पर आलेपन कर, पवित्र होकर प्रीतिपूर्वक स्त्रीसङ्ग करना चाहिए । स्वरप्रवाहानुसारेण रतिविचारं - सविभ्रमवचोभिश्च पूर्वमुल्लाभ्य वल्लभाम् । समकालपतन्मूल कमलक्रोडरेतसम् ॥ 205 ॥ पुत्रार्थं रमयेद्धीमान् बहद्दक्षिणनासिकम् । प्रवहद्वामनाडिस्तु कामयेतान्यदा पुनः ॥ 206 ॥ पुरुष को जब दक्षिण नासिका का स्वर चलता हो तब विलासकारी वचनों से स्त्री में कामोत्तेजना कर इन्द्रिय के कमलाकार मूल प्रदेश में शुक्र सम काल में मिश्रित हो, उस रीति से पुत्र के लिए सहवास करना चाहिए और यदि पुत्री की इच्छा हो तो जब बायीं नासिका का स्वर प्रवाह हो तब सहवास करना चाहिए। * गर्भाधानकाले वर्जनीयनक्षत्राः गर्भाधान मघा वर्ज्या रेवत्यपि यतोऽनयोः । स्तस्ते च दुःखदे ॥ 207 ॥ पुत्रजन्मदिने मूल गर्भधारण के अवसर पर मघा और रेवती- इन दोनों नक्षत्र को वर्जित जानना चाहिए क्योंकि इनसे पुत्र के जन्म समय में मूल और आश्लेषा नक्षत्र आते हैं और ये नक्षत्र बहुत कष्टकारी सिद्ध होते हैं। " * सारावली में कहा गया है— द्विपदादयो विलग्नात् सुरतं कुर्वन्ति सप्तमे यद्वत् । तद्वत्पुरुषाणामपि गर्भाधानं समादेश्यम् ॥ अस्ते शुभयुतदृष्टे सरोषकलहं भवेद्ग्राम्यम् । सौम्यं सुरतं वात्स्यायनसम्प्रयोगिकाख्यातम् ॥ (बृहज्जातक भट्टोत्पलीय विवृत्ति 4, 2 पर उद्धृत) ** ज्योतिष का मत है कि मूल नक्षत्र के पहले चरण में जन्म लेने वाला बालक पिता, द्वितीय चरण में माता के लिए अशुभ होता है जबकि तृतीय चरण में जन्मा जातक धनक्षयकारी माना जाता है। इसी प्रकार चौथे में जन्म शुभफलद होता है। इसी प्रकार आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्मा शिशु शुभ स्वीकार्य है। द्वितीय चरण में जन्मा शिशु धनक्षयकारी होता है। तृतीय माता के लिए कष्टदायी और चतुर्थ चरण में जन्मा बालक पिता के लिए नेष्टप्रद होता है— आधे पिता नाशमुपैति मूलपादे द्वितीये जननी तृतीये । धनं चतुर्थोऽस्य शुभोऽथ शान्त्या सर्वत्र सत्स्यादहिभे विलोमम् ॥ (मुहूर्तचिन्तामणि 2, 55) श्रीपति का मत है गण्डान्त के आदि पाद में यदि बालक का जन्म हो तो पिता के लिए अशुभकारी होता है। द्वितीय में माता के लिए अशुभ, तृतीय में जन्मे तो धनक्षय किन्तु चतुर्थ पाद में शुभ होता है । आश्लेषा नक्षत्र के अन्त में जन्मे जातक का फल भी उक्तानुसार ही होता है - तदाद्यपादके पिता विपद्यते जनन्यथ। घनक्षयस्तृतीयके चतुर्थकः शुभावहः ॥ प्रतीपमन्त्यपादतः फलं तदैव सार्ण्यभे । तदुक्त दोष शान्तये विधेय मन्त्र शान्तिकम् ॥ (ज्योतिषरत्नमाला 4, 69-70)
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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