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________________ अथायव्ययवाहनसन्ध्याहारशौचादीनां वर्णनं नाम चतुर्थोल्लासः : 105 आधे सूर्य मण्डल के अस्त होते-होते देह-शुद्धि करे और कुलोचित धर्मकृत्यों का सम्पादन करते हुए अपनी आत्मा को पवित्र करने का यत्न करना चाहिए। सायंकाले निषिद्धकर्माह - न शौधयेन कण्डूयेनाकमेदहिमङ्हिणा। न च प्रक्षालयेत्कासं न कुर्यात्स्वामिसम्मुखम्॥6॥ सन्ध्याकाल में अन्नादि का शोधन नहीं करना चाहिए न ही कूटना चाहिए। पाँव पर पाँव नहीं चढ़ाना चाहिए और स्वामी के सम्मुख खाँसना नहीं चाहिए। सन्ध्याया श्रीगुहं निद्रां मैथुनं दुष्टगर्भकृत्। पाठं वैकल्यदं रोगप्रदां भुक्तिं न चाचरेत्॥7॥ यह ज्ञात रहे कि सन्ध्याकाल में निद्रा लेने से लक्ष्मी का विनाश होता है; मैथुन करने से दुष्ट गर्भोत्पत्ति होती है। पढ़ने से पाठ में विकलता होती है और भोजन करने से रोगोत्पत्ति होती है। इसलिए इन कार्यों को नहीं करना चाहिए। सायंकालप्रमाणमाह अर्केऽर्धास्तामिते यावनक्षत्राणि नभस्तले। द्वितीणि नैव वीक्ष्यन्ते तावत्सायं विदुर्बुधाः॥8॥ आधे सूर्य मण्डल के डूबने पर आकाश में दो-तीन नक्षत्र जहाँ तक नहीं दिखाई दे जाए तब तक सायंकाल का समय है- ऐसा पण्डितों का कथन है।" तत्रावसरे अतिथ्यादीनां आदरदानिर्देशं * दिवस और दोनों सन्ध्याओं की वेला में समागम से कई जन्मों तक रोगी और दरिद्र होना पड़ता है-दिवसे सन्ययोनिद्रां स्त्रीसम्भोगं करोति यः। सप्तजन्म भवेद्रोगी दरिद्रः सप्तजन्मसु । (ब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्णजन्मकाण्ड 75, 80) **विश्वामित्रस्मृति में कहा गया है कि सायंकाल की सन्ध्या सूर्य के रहते उत्तम, सूर्यास्त के बाद व तारों के निकलने से पूर्व मध्यम और तारा निकलने के बाद अधम कही है- उत्तमा सूर्यसहिता मध्यमा लुप्तसूर्यका। अधमा तारकोपेता सायं सन्ध्या त्रिधास्मृता । (विश्वामित्र. 1, 24) दिवस के पाँच काल है। सूर्योदय से तीन मुहूर्त का प्रात:काल, इसके बाद तीन मुहूर्त का सङ्गवकाल, पुनः तीन मुहूर्त का मध्याह्न और इसके उपरान्त तीन मुहूर्त का अपराह्नकाल तथा अन्त में तीन मुहूर्त का सायाह्नकाल होता है-त्रिमुहूर्तस्तु प्रात:स्यात्तावानेव तु सङ्गवः । मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तः स्यादपराहस्तथैव च ।। सायं तु त्रिमुहूर्त: स्यात्पञ्चधा काल उच्यते॥ (प्रजापतिस्मृति 156-157) धाराधिप भोजराज का मत है कि वह काल जबकि सूर्य अस्त होता हुआ कुमकुम या लाल नलेप के समान प्रतीत होता है. जब कि आकाश में स्थित तारागण अपने प्रकाश से टिमटिमाते हुए दिखाई नहीं देते, जबकि आकाश गायों के खुरों की नोकों से चूर्ण की हुई धूलि से भर जाता है, वह वेला धनधान्य की वृद्धि करने वाली सायंकालिक गोधूलिका कही जाती है-यावत्कुंकुमरक्तचन्दननिभोप्यस्तं न यातो रविर्यावच्चोडुगणो नभस्तलगतो नो दृश्यते रश्मिभिः । गोभिः स्वाभिखुराग्रभागदलितैर्व्याप्त नभः पांशुभिः सा वेला धनधान्यवृद्धिजननी गोधूलिका शस्यते ॥ (राजमार्तण्ड 534)
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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