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________________ समता कोई किसी के नहीं हैं वैसे ही हम भी संसार वृक्ष के फल हैं और समय आने पर अलग होंगे । जैसे किसी फल पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं वह जल्दी पक जाता है और खानेवाले के नज़र पड़कर अपना नाश कराता है बाकी के फलों का भी नंबर क्रमशः आता ही है किसी का जल्दी किसी का देर से वैसे ही हमारा भी काल पा रहा है। यदि तपरूपी सूर्य की सीधी किरणें हम पर पड़ जावें तो इस शरीररूप आकार का नाश कर अपना कल्याण साध लें बाकी पकने पर गिरना तो पड़ेगा ही । अतः जैसे उन फलों में कोई किसी का अपना नहीं व पराया भी नहीं वैसी ही स्थिति हमारी भी है। कई बार जन्मे हैं और कई बार मरे हैं, वर्तमान परिवार के जीवों के संसर्ग में भी कई भवों तक आए हैं अतः हमारा न कोई मित्र है न कोई शत्रु है। शरीर का आकार भी बदलता रहता है । "चलती फिरती बादल छाया, मूरख इसमें क्यों भरमाया" । खेलते कूदते भोला व स्वतंत्र बचपन बीत गया, दीवानी जवानी के बल को स्त्री व परिवार ने हरण कर लिया, चिंता व प्राशाओं ने जवानी व बुढ़ापा एक ही साथ ला दिया, और फिर तो "अंगं गलितं पलितं मुण्डं दन्त विहीनं जातं तुण्डं, वृद्धोयाति ग्रहीत्वा दण्डं तदपि न मुँचति प्राशा पिण्डम्" । यह दशा उपस्थित हो जायगी। हे कालवन में भटकने वाले मानव, जिस किसी अनजान ने तुझे जो भी मार्ग बताया उसी पर चलता हुवा तू और अधिक घूमता हुवा वहीं का वहीं आकर खड़ा हो गया तेरा सब परिश्रम व्यर्थ गया। तेली का बैल सुबह से शाम तक घूमा परन्तु वहीं का वहीं। हे सुज्ञ !
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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