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________________ सुभाषित ६ स्वभाव से ही सुखरूप में परिणाम पाता हुवा आत्मा ही सुखरूप बनता है; शरीर सुखरूप नहीं है । (१, ६५) ___ यदि साधक प्रमादपूर्वक आचरण करता है तो उसे निश्चित ही जीवहिंसा लगती है चाहे जीव मरे या न मरे; परंतु यदि साधक अप्रमादी है, यत्नपूर्वक आचरण करते हुए भी उससे जीव हिंसा हो जाय तो उसे उसका पाप नहीं लगता है। (अर्थात उसको लगा हुवा पाप प्रायश्चित आदि से शीघ्र नष्ट होता है) (३, १७) जो मुनि जीव जंतु मरते हैं या बचते हैं इस बात की परवाह न करते हुए (प्रयत्न न करते हुए) प्रवृत्ति करता है, तो चाहे उसके द्वारा एक भी जीव मरता हो या न मरता हो तो भी उसको छः ही जीव वर्ग मारने का बंधन होता है, परन्तु यदि वह प्रयत्न पूर्वक प्रवृत्ति करता हो और यदि उसके द्वारा जीव मर जाय तो भी वह जल में कमल को तरह निर्लेप रहता है। (३, १८) शारीरिक प्रवृत्ति करते हुए यदि जीव मर जाय तो बंध हाता भी है और नहीं भी होता है परन्तु परिग्रह से तो बंध होता ही है। अतः विवेकी श्रमण तमाम परिग्रह का त्याग करे। (३, १६) जहां तक निरपेक्ष त्याग न किया जाय तब तक चित्त शुद्धि नहीं हो सकी है और जब तक चित्त शुद्धि नहीं है तब तक कर्मक्षय कैसे हो सकता है ? (३, २०)
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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