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________________ अध्यात्म-कल्पद्रुम - विवेचन – सभी धर्मों में हिंसा को सर्वश्रेष्ठ माना है, सर्वसाधारण उक्ति है "अहिंसा परमो धर्मः " परन्तु ऐसा मानते हुए भी कई धर्मावलम्बी हिंसा करते रहते हैं इतना ही नहीं धार्मिक पर्वों पर भी धर्म के नाम पर हिंसा करते हैं । जैन धर्म ने इसकी पूरी गहराई सोची है । जैन इसका पालन सावधानी से करता व कराता है। किसी भी प्राणी को स्वयं पीड़ा देना, दूसरे से दिलाना, या पीड़ा देने वाले को सहायता देना या उसकी पुष्टि करना इन तीनों प्रकारों की हिंसा का मन से, वचन से, काया से त्याग करना संपूर्ण अहिंसा कहलाता है । इससे मन, वचन और काया के योग निर्मल बनते हैं । हे जीव ! तेरा मन सदा समता में ही लीन हो दुर्विकल्पों से हटकर निर्मल रहे यह तभी हो सकता है जब कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि जो आत्मगुणों के घातक हैं उनका त्याग किया जाय । इतना होने पर दुर्विकल्पों का स्वयमेव नाश हो जाता है और मन निर्मल होकर आत्महित में लगता है । वचन से भी पाप व्यापारों का त्याग आवश्यक है यह भी तभी हो सकता है जब मन में से हिंसा की भावना दूर हो जाय । किसी को पीड़ा देने के लिए या अपने स्वार्थ के लिए वचन का पाप व्यापार होता है परंतु जब मन ही पाप व्यापार से दूर हो जाय तो वचन से वैसे उद्गार निकल ही नहीं सकते हैं एवं काया से वैसे पाप आचरे ही नहीं जा सकते हैं । अतः शास्त्रकार चाहते हैं कि तेरे मन, वचन, काय निर्मल हो जाएं जिससे तू अपनी आत्मा का व अन्य की आत्माओं का हित कर सके । ३८८
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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