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________________ ३८२ अध्यात्म-कल्पद्रुम शोलांग-योग-उपसर्ग-समिति-गुप्ति विशुद्धशीलांगसहसधारी, भवानिशं निर्मितयोगसिद्धिः । सहोपसर्गांस्तनुनिर्ममः सन्, भजस्व गुप्तीःसमितीश्च सम्यक् ।।३।। ___ अर्थ तू (अठारह) हजार शीलांग को धारण करने वाला बन, योग सिद्धि निष्पादित हो, शरीर की ममता का त्यागकर उपसर्गों का सहन कर एवं समिति तथा गुप्ति को अच्छी तरह भज ॥ ३ ॥ इंद्रवज्रा विवेचन-तू चारित्र के अंग-शीलांग का धारण कर, मन वचन और काया के योग को वश में कर अर्थात योग की सिद्धि प्राप्त कर, शरीर की ममता छोड़कर परिषह सह, शरीर के लिए विचार कर कि यह क्या है ? किसका है ? इसका स्वभाव क्या है ? आदि । जीवन को उत्तम बनाने के लिए अष्ट प्रवचन माता रूप पांच समिति और तीन गुप्ति को धारण कर । स्वाध्याय-आगमार्थ-भिक्षा आदि स्वाध्याययोगेषु दधस्व यत्न, माध्यस्थवृत्यानुसरागमर्थान । अगारवो भैक्षमटाविषादी, हेतौ विशुद्ध वशितेंद्रियोघः ।। ४ ।। अर्थ-सज्झाय ध्यान में यत्न कर, मध्यस्थ बुद्धि से आगम के अर्थ के अनुसार, अहंकार को छोड़कर भिक्षा के लिए फिर, एवं इन्द्रिय के समूह को वश में करके शुद्ध हेतु में विषाद रहित होजा ॥ ४ ॥ उपजाति..
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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