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________________ मिथ्यात्वनिरोध-संवरोपदेश ३७६ मोह गया तो भव म्रमण गया और भव भ्रमण गया कि अव्याबाध मुक्ति सुख मिला समझो । जैसे सर्दी से बचने वाला वाला प्राणी सर्वप्रथम बाहर से अपने मकान में प्रवेश करता है पश्चात उसके दरवाजे और खिड़कियां बंद करता है पश्चात कमरे के अंदर की ठण्डी हवा को गरम करने का उपाय करता है वैसे ही मोक्षार्थी प्राणी सर्वप्रथम अपने घर में आत्मदशा में प्रवेश करे पश्चात कर्मों के पाने के मार्गों मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग को रोके, तत्पश्चात, पूर्व के कर्मों को तप की गरमी से तपावे। इस तरह से संवर और निर्जरा करने से वह अपने सबसे सुखदायी, सदाकाल स्थिर रहने वाले सर्वोत्तम महल-मोक्ष में जा पहुंचेगा फिर उसे पुनर्जन्म रूप सर्दी नहीं लगेगी। __इस जन्म में धन, स्त्री, पुत्र, मकान आदि पाना दुर्लभ नहीं है, दुर्लभ तो है अपनी आत्मदशा का ज्ञान होना। वैसा होने पर भी अति कठिन है मन का नियंत्रण । हठ योग से मन का रुकना वैसा ही फलदायी है जैसा कि अति शक्तिमान चंचल घोड़े को बांध देना इससे श्रेष्ठ तो यह है कि इस घोड़े की शक्ति का सदुपयोग किया जाय । मन को रोकने की अपेक्षा उसकी अशुभ प्रवृत्ति को रोककर उसे शुभ प्रवृत्ति में लगाना श्रेष्ठ है । मन शुभ ध्यान में लगा नहीं कि ज्ञानोदय हुवा नहीं फिर मोक्ष दूर नहीं है। . इति चतुर्दशो मिथ्यात्वाविनिरोषधिकारः
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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