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________________ ३५६ अध्यात्म- कल्पद्रुम हैं अतः शरीर के रूप में दोंनों को भिन्न भिन्न गिनना और योग के रूप में एकत्रित कर एक हीं गिना है। दूसरा रहता ही है । एक के साथ इन सत्तावन बंध हेतुनों का संवर किया की प्रणाली बंध होती और पहले के बंधे हुए हो जाने पर जीव स्वतंत्र अनवधि सुख प्राप्त करता है । इस अधिकार में योग निरोध इंद्रिय दमन पर विशेष लिखा जावेगा । हो तो कर्मबंध कर्मों के क्षय मनोनिग्रह — तंदुल मत्स्य मनः संवृणु हे विद्वन्नसंवृतमना यतः । याति तंदुलमत्स्यो द्राक्, सप्तमीं नरकावनीम् ॥ २ ॥ अर्थ- हे विद्वान ! मन का संवर तंदुल मत्स्य मन का संवर नहीं करने से नरक में जाता है ।। २ ॥ कर ; कारण कि तुरंत ही सातवें अनुष्टुप मन की चाहे जहां भटकने देने से बहुत कर्मबंध होते हैं । इसको स्वछंद छोड़ने से यह अनेक तरह के विचार करता रहता है और समायिक जैसी क्रिया करते हुए और उसमें ध्यान करते हुए भी वह कहीं का कहीं पहुंच जाता है परिणामतः जीव को अनेक प्रपत्तियों में डालता है और कुगति की तरफ खींचता है । मगरमच्छ की पलकों में रहने वाली चांवल जितनी सी छोटो मच्छी मगरमच्छ के मुंह में से पानी के साथ निकल जाने वाली छोटी छोटी मछलियों के लिए सोचती हैं, “कि यदि मगरमच्छ की जगह में होतीं तो
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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