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________________ यतिशिक्षा ३४५ तक समभाव में बरतता है तब वह बाणवें क्रोड़, उन साठ लाख, पच्चीस हजार नौ सो पच्चीस और तीन अष्टम भाग (६२, ५६, २५, ६२५३/८)" पल्योपम का देवायुष्य बांधता है । "इति प्रतिक्रमण-सूत्र वृत्तौ" । एक सामायिक का जब इतना अधिक फल है तब साधु जो पूरे जीवन के प्रत्येक दिन के प्रत्येक क्षण में सामायिक में रहकर जीवन के सभी काम करता है, उसको कितना अधिक फल मिलता है । अतः हे साधु विषय कषाय से दूर रहकर उत्तम प्रकार से संयम जीवन बिता । संयम का फल-ऐहिक व आमुष्मिक- उपसंहार नाम्नापि यस्येति जनेऽसि पूज्यः, शुद्धात्ततो नेष्टसुखानि कानि । तत्संयमेऽस्मिन् यतसे मुमुक्षोऽनुभूयमानोरुफलेऽपि किं न ॥५७।। अर्थ-संयम के नाम मात्र से भी यदि तू लोगों में पूजा जाता है तो यदि वास्तव में संयम शुद्ध हो तो कौन सा इष्ट तुझे नहीं मिलता ? जिस संयम के महान फल प्रत्यक्ष अनुभव में आए हैं उस संयम में हे यति ! तू प्रयत्न क्यों नहीं करता है ? ॥ ५७ ॥ उपजाति विवेचन केवल ऊपरी वेष व पात्र से ही तू साधु दीखता है और इतने से परिवर्तन से ही जब तुझे आहार, उपाश्रय और वंदन पूजनादि मिलता है अर्थात तेरे नाम मात्र के साधुपन से इतना फल मिलता है । यदि तू साधु जीवन को,
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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