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________________ यतिशिक्षा ३१६ खूब कतर कर या कूटकर ही खाते हैं प्रोह यदि इनको युवावस्था में छोड़ दिया होता तो इस प्रकार की बाल चेष्टाएं न करनी पड़ती। अतः परिषह सहने में सशक्त बन । परिषह सहने के शुभ फल अणीयसा साम्यनियंत्रणाभुवा, मुनेत्र कष्टन चरित्रजेन च । यदि क्षयो दुर्गतिगर्भवासगाऽसुखावलेस्तत्किमवापि नार्थितम् ।३६। अर्थ-समता से और नियंत्रण से होते हुए थोड़े से कष्ट के द्वारा एवं चारित्र पालने से होते हुए थोड़े से दुःख के द्वारा यदि दुर्गति में जाने का और गर्भ परंपरा का सर्वथा क्षय हो जाता हो तो फिर तुझे कौन सा इच्छित प्राप्त नहीं हुवा है ? ॥ ३६ ॥ वंशस्थविल विवेचन यद्यपि समता से आत्मा को आनंद ही आता है, इससे संकल्प विकल्प का नाश होकर अत्यंत सुख प्रकट होता है तथा चारित्र पालने में भी विशेष कष्ट नहीं होता है वरन आत्म संतोष व शांति की प्राप्ति होती है तो भी इसे यदि कष्ट ही मान लिया जाय, तो इन दोनों प्रकार से तुझे थोड़ा कष्ट होकर परिणामतः दुर्गति का व भवपरंपरा का (पुर्नजन्म का) सर्वथा नाश होता हो तो फिर तुझे और क्या चाहिए। थोड़े से कष्ट सहने से हमेशा का कष्ट तो नष्ट हुवा । ऐसा विचार करके समता से परिषह सह । परिषह से दूर भागने के बुरे फल त्यज स्पृहां स्वःशिवशर्मलाभे, स्वीकृत्य तिर्यङ नरकादिदुखम् । सुखाणुभिश्चेद्विषयादिजातैः, संतोष्यसे संयमकष्टभीरः ।। ३७ ।।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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