SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतिशिक्षा ३०७ जिससे तेरे ज्ञान चक्षु खुल जाएंगे और तू मोक्ष महल में जा पहुंचेगा। स्वयं भी तरेगा और अन्य को भी तारेगा। परिग्रह त्याग परिग्रहं चेद्वचजहा गृहादेस्तत्कि नु धर्मोपकृतिच्छलात्तम् । करोषि शय्योपधिपुस्तकादेर्गरोपि नामांतरतोपि हंता ॥ २४ ॥ ___अर्थ-घर अादि परिग्रह को. तूने छोड़ दिये हैं तो फिर धर्म के उपकरण के बहाने शय्या, उपधि, पुस्तक आदि का परिग्रह क्यों करता है ? (क्योंकि) ज़हर का नाम बदल देने से भी वह मारता ही है ॥ २४॥ उपेन्द्रवजा विवेचन—जब तूने घर द्वार, खेत कुए, धन, धान्य, नौकर चाकर, पशु आदि परिग्रह का त्याग किया है फिर धर्म के नाम पर मिलने वाली वस्तुओं पर क्यों मूर्छा करता है। परिग्रह का नाम ही मूर्छा है। कई साधु, भोले श्रावकों के पास से नानाविधि से क्रियाएं, समारोह या तपस्याओं का या ज्ञान प्रकाशन का आयोजन कर धन व वस्त्र मंगवाते हैं और अपने निर्धारित केंद्रों पर पहुंचा देते हैं। अोह मानव का मन कितना क्षुद्र है । एक तरफ वह सर्वस्व का त्याग करता है दूसरी तरफ वह तुच्छ वस्तुओं पर मूर्छित (आसक्त) रहता है। विष को मिठाई कहकर खिलाया जाएगा तो भी उसका असर हुए बिना नहीं रहेगा। परिग्रह, परिग्रह ही रहेगा चाहे वह धन माल का हो चाहे उपकरण का हो। अतः शास्त्रों में आज्ञा दिए गए उपकरण के अतिरिक्त तू कुछ भी न रख,
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy