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________________ ३०० अध्यात्म-कल्पद्रुम ___ अर्थ हे आत्मा ! तू पुण्य रहित है फिर भी पूजा आदि की इच्छा रखता है और जब वह नहीं मिलती है तब तू दूसरों पर द्वेष करता है ! (परन्तु वैसा करने से) इस भव में संताप पाता है और परभव में कुगति में जाता है ॥ १८ ॥ उपजाति विवेचन—पूर्व पुण्य के बिना पूजा सत्कार आदि की प्राप्ति नहीं होती है । हे आत्मा, तू ने पिछले भव में दान शील तप आदि नहीं किए अतः इस भव में तुझे पूजा सत्कार नहीं मिल रहे हैं । तू तो मात्र साधु का बाना धारण करके ही पूजा चाहने लगा है परन्तु जिसका तू उपासक है व जिसके बताए हुए मार्ग पर अग्रसर हो रहा है वह वीर परमात्मा तो मान अपमान या पूजा निंदा में समान दृष्टि वाले थे। इन्द्र के महोत्सव या दशार्णभद्रराजा द्वारा किए गए स्वागत का उनके मन पर ज़रा सा भी असर नहीं हुवा । तेरे पहले के पुण्य न होने से अभी पूजा का अभाव है तथा तू औरों पर द्वेष करता है अतः कुगति निश्चित है । पहले योग्य तो बन, बाद में योग्यतानुसार इज्जत व सत्कार स्वयं ही मिलेंगे। स्तुति ऐसी वस्तु है कि जो उसकी इच्छा करता है उससे वह दूर भागती है परन्तु जो उसको लात मारता है या उसके कारणों को प्राप्त करता है उसके पास स्वयं चली आती है अतः प्रथम योग्यता प्राप्त कर, बाद में उसकी इच्छा करना । गुण बिना स्तुति की इच्छा करने वाले का ऋण गुणैविहीनोपि जनानतिस्तुतिप्रतिग्रहान् यन्मुदितः प्रतीच्छसि । लुलायगोऽश्वोष्ट्रखरादिजन्मभिविना ततस्ते भविता न निष्क्रयः १६
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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