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________________ अध्यात्म-कल्पद्रुम ३ – तिर्यंचकृत् - भय से, द्वेष से आहार के लिए, व अपने बच्चे की रक्षा के लिए पशु सामने मारने दौड़ता है वह कष्ट । ४— आत्मकृत—वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि । २८० ७. अठारह हजार शीलांग धारण करना चाहिए जिन्हें शास्त्रों से समझें । इस प्रकार से ऊपर वर्णित सात तरह के प्राचरण करना चाहिए। तू जानता है कि ये मोक्ष जाने के साधन हैं एवं तू चाहता भी है मोक्ष में जाना, परन्तु काम विपरीत करता है । वैसे साधन बिना केवल वेष से मोक्ष नहीं जाया जाता अतः सद्धर्म रूपी नाव में बैठ कर मोक्ष में जा पहुंच । केवल बेष से कोई लाभ नहीं है आजीविकार्थमिह यद्यतिवेषमेष, धत्से चरित्रममलं न तु कष्टभीरुः । तद्वेत्सि किं न न बिभेति जगज्जिघृक्षुमृत्युः कुतोपि नरकश्च न वेषमात्रात् ।। प्रथं - तूं प्राजिविका के लिए ही इस संसार में यति का भेष धारण करता है परन्तु कष्टों से डरकर शुद्ध चारित्र नहीं पालता है, परन्तु तुझे मालूम नहीं है कि समस्त संसार को ग्रहण करने की ( हड़पने की) इच्छा वाला मौत और नरक किसी भी प्राणी के वेष से डर नहीं जाते हैं ॥ ४ ॥
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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