SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरुशुद्धि २६७ चाहिए। कहने को सब हैं करने को कोई नहीं अतः सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर इनका पालन करना चाहिए। पर भव में सुख पाने के लिए पुण्य धन भक्त्यैव नार्चसि जिनं सुगुरोश्च धर्म, नाकर्णयस्यविरतं विरतोन धत्से । साथ निरर्थमपि च प्रचिनोष्यघानि, मूल्येन केन तदमुत्र समोहसे शम् ? ॥ १३ ॥ अर्थ हे भाई ! तू भक्ति से श्री जिनराज की पूजा नहीं करता है, एवं उत्तम गुरू महाराज की सेवा नहीं करता है; निरंतर धर्मश्रवण नहीं करता है; विरति (पाप से पीछे हटना व्रत पच्चखान करना) भी धारण नहीं करता है, प्रयोजन से या बिना प्रयोजन से पापों की पुष्टि करता है तो फिर किस मूल्य से आते भव में सुख प्राप्त करने की इच्छा रखता है ।। १३ ॥ वसंततिलका ____ विवेचन—संसार में कोई भी वस्तु बिना कोमत से नहीं मिलती है। जैसे तू आराम के साधनों के लिए परिश्रम कर रुपया पैदा करता है और उन रुपयों से वस्तु खरीदता है वैसे ही यदि परभव में सुख पाने की इच्छा रखता है तो ऊपर बताए गए काम कर जिसके बदले में तुझे सुख मिलेगा। संसार में फंसा हुवा तू हर समय धनोपार्जन में लगा रहता है और जब कभी धार्मिक कामों के लिए तुझे सलाह दी जाती है तब कहता है कि "फुरसत ही नहीं है, धंधे से सिर
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy