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________________ गुरुशुद्धि २६५ अर्थ - जो तत्त्वों को ज्ञान कराकर शुद्ध धर्म में लगाते हैं वे ही सच्चे माता पिता और गुरु हैं । जो डालकर इस जीव को भव समुद्र में फेंक देते हैं दूसरा कोई शत्रु नहीं है ॥ १० ॥ धर्म में विघ्न उनके समान उपजाति विवेचन - माता, पिता, या गुरु बालक को पाल पोषकर शिक्षित करते हैं उनका कर्त्तव्य है कि जब बालक युवा हो जाय तब उसे संसार की वास्तविकता, नरक निगोद प्रादि के दुःख, गृहस्थाश्रम के बंधन आदि, भव भ्रमण के अनेक कारणों को स्पष्ट समझा दें यदि वह संवेगी ( वैराग्यवान ) होना चाहता है या आत्मकल्याण करने को उद्यत होता है तो उसे सहर्ष आज्ञा दे दें। यदि वे उसके धर्माराधन में विघ्न डालते हैं, अपने स्वार्थ के लिए उसे संसार के बंधन में डालते हैं तो वे उसके सबसे बड़े शत्रु हैं । सम्पत्ति के कारण दाक्षिण्यलज्जे गुरुदेवपूजा, पित्रादिभक्तिः सुकृताभिलाषः । परोपकारव्यवहारशुद्धि, नृणामिहामुत्र च संपदे स्युः ॥ ११ ॥ अर्थ - ( दाक्षिण्य ) - सरलता, लज्जा, देव गुरू की पूजा, पिता आदि बड़ों की भक्ति, सत्कार्य की अभिलाषा, परोपकार और व्यवहार शुद्धि, ये सातों मनुष्य को इस भव में और परभव में सम्पत्ति देते हैं ।। ११ ।। उपजाति विवेचन – ऊपर के सातों का भाव समझकर शुद्ध हृदय से मननकर आचरण करने से इस भव में और परभव में ३२
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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