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________________ २६२ अध्यात्म-कल्पद्रुम ___ अर्थ-दृष्टि राग से गुण की अपेक्षा के बिना तू अशुद्ध देव गुरु धर्म के प्रति हर्ष बताता है उसके लिए तुझे धिक्कार है ! जिस प्रकार से कुपथ्य भोजन करने वाला महान पीड़ा पाकर हैरान होता है उसी प्रकार से तू भी आते भव में उनका (कु देव-गुरु धर्म सेवन का) फल पाकर चिंता करेगा ॥ ७ ॥ __ उपजाति विवेचन यदि हम कभी किसी बड़े शहर में किसी चौराहे पर पहुंच गए हों जहां कि रास्ते खूब फटते हों, हमें हमारा निर्दिष्ट मार्ग मालूम नहीं हो, किंकर्तव्य विमूढ़ होकर खड़े हुए हों इतने में कोई हमारा शत्रु आ जाय तो उसके बताए गए मार्ग पर जाने का हम विश्वास नहीं करेंगे हमारे मन में शंका हो जाएगी कि यह जरूर हमसे बदला लेने की फिराक में है हम जैसे ही उस राह चले नहीं कि इसने मोका देखा नहीं। इतने में कोई विश्वासी मित्र आ जाता है तो उसके कथनानुसार विश्वास कर उसके निर्दिष्ट मार्ग पर चले जाते हैं उसी प्रकार से हम भव में भटकते हुए प्राणी भी महावीर प्रभु के साधुओं के वेष पर विश्वास करते हैं और जीवन उनके चरणों में रख देते हैं लेकिन उनमें से कितने ही स्वार्थी गुरू हमारे जीवन को कुपथ में ले जाते हैं कितने ही स्वार्थी धन लोलुपी यति, श्रीपूज्य, व कोई कोई साधु मुनिराज भी डोरे धागे, जंतर मंतर करके सट्ट के प्रांक बताकर भोली प्रजा को बहकाते हैं उनके धन का हरण कर स्वयं गुप्त रीति से मिष्ठान्न पान करते व व्यभिचार
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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