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________________ २५८ अध्यात्म-कल्पद्रुम कुगुरु के उपदेश से किया. हुवा धर्म भी निष्फल है फलादृथाः स्युः कुगुरूपदेशतः, कृता हि धर्मार्थमपीह सूद्यमाः। तदृष्टिरागं परिमुच्य भद्र हे, गुरु विशुद्ध भज चेद्धितार्थ्यसि। ५।। __ अर्थ अत्यंत उद्यम से कुगुरू के उपदेश से किए गए धर्म के कार्य इस संसार यात्रा में फल की दृष्टि से वृथा होते हैं, अतः हे भाई ! यदि तुझे हित की इच्छा हो तो दृष्टि राग को छोड़कर अत्यंत शुद्ध गुरु को भज ॥ ५ ॥ उपजाति विवेचन आज साधारण जनता को धर्मशास्त्रों के अभ्यास करने की अनुकूलता नहीं है कारण कि लोग कमाई में इतने फंसे रहते हैं कि अभ्यास के लिए फुरसत ही नहीं मिलती है, जिनको फुरसत है उनके पास संस्कृत या प्राकृत का ज्ञान ही नहीं है, फिर भी संसार से संतप्त होकर, जीवन से निराश हुए व चतुर्थ अवस्था को प्राप्त प्राणी व्याकुल होकर शांति की तलाश करते हैं । उनको दृष्टि संसार से विरक्त व्यक्तियों पर साधुओं पर जाती है, वे समझते हैं कि वैराग्य की निशानी रूप काषाय, श्वेत या पीत वस्त्र को धारण करने वाले संत महापुरुष या मुनि पुंगव हमें अवश्य शांति देंगे। वे उनकी मीठी बातों में आकर विश्वास कर लेते हैं । प्रतिदिन के संपर्क से उनके प्रति राग हो जाता है ज्यों ज्यों परिचय बढ़ता जाता है त्यों २ राग बढ़ता जाता है, परन्तु क्योंकि जनता में शास्त्र ज्ञान तो है
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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