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________________ गुरुशुद्धि २५५ श्यक है क्योंकि हमें अपने जीवन को उनके आधार पर ही छोड़ना है। वे यदि उत्तम हैं तो हमें तार देंगें नहीं तो डुबा देंगे। सदोष गुरु के बताए हुए धर्म भी सदोष हैं भवी न धर्मेरविधिप्रयुक्तर्गमी शिवं येषु गुरुर्न शुद्धः। . रोगी हि कल्यो न रसायनैस्तैर्येषां प्रयोक्ता भिषगेव मूढः ।।२।। ___ अर्थ जहां धर्म को बताने वाले गुरु ही शुद्ध नहीं हैं, वहां अवधि से धर्म करने वाले प्राणी मोक्ष में जा नहीं सकते हैं; जिस रसायन को खिलाने बाला वैद्य हो मूर्ख हो तो वह रसायन व्याधियुक्त प्राणी को निरोगी नहीं कर सकती है ॥ २॥ उपजाति विवेचनजिसने स्वयं मार्ग नहीं देखा है यदि वह मार्ग दृष्टा बनता है तो स्वयं भी भटकता है और दूसरों को भी भटकाता है । यह तो स्पष्ट है कि अनजान ड्राइवर के द्वारा चलाई गई मोटर या रेल हजारों प्राणियों का नाश करती है । मूर्ख कारीगर के हाथ में दी गई मशीन या घड़ी सुधरने के बदले नष्ट हो जाती है। ऊंट वैद्य के पास ले जाए गए रोगी का जोवन खतरे में हो जाता है वैसे ही विषयी, ढोंगी, कंचन कामिनी युक्त गुरु के उपदेश से लाभ तो कुछ नहीं होगा वरन भव परंपरा बढ़ेगी। यहां संसारी जीव को रोगी, धर्म को रसायन और वैद्य को गुरु के दृष्टांत से समझाया है।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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