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________________ २४४ अध्यात्म-कल्पद्रुम सुनकर दुःखी न होना और पर के दोषों की निंदा सुनकर खुश न होना ही माध्यस्थ भाव या सच्ची समझ है । गुण स्तुति की इच्छा हानिकारक है भवेन्न कोऽपि स्तुतिमात्रतो गुणी, ख्यात्या न बह्वयापि हितं परत्र च । तदिच्छुरीादिभिरायति ततो, मुधाभिमानग्रहिलो निहंसि किम् ॥ ७ ।। अर्थ-लोग प्रशंसा करते हों इससे मात्र कोई गुणी नहीं हो सकता है, एवं अधिक ख्याति से भी आते भव का हित नहीं होने वाला है, यदि तू आते भव में स्वहित करने का इच्छुक है तो निरर्थक अभिमान के वश होकर ईर्षा आदि करके आते भव को भी क्यों बिगाड़ता है ? ॥ ७ ॥ उपजाति विवेचन-गुण होंगे तो स्वयं प्रशंसा हो जाएगी, यदि तू प्रशंसा का भूखा रहकर, उसका प्रयत्न करेगा तो अपमानित होकर खिन्न वदन रहेगा। प्रशंसा करने वाले भी अपना स्वार्थ देखकर ही प्रशंसा करते हैं, वास्तव में गुणों के प्रशंसक विरले ही मिलते हैं । झूठी प्रशंसा से न तो प्रात्मा को संतोष होता है न परभव में कुछ हित होने वाला है । अल्प गुणी व अभिमानी की वही दशा होती है जो उस कव्वे की हुई जिसने लोमड़ी द्वारा झूठी प्रशंसा सुनकर गाने के लिए मुंह खोला और रोटी को खो बैठा अतः अभिमान व इर्षा के द्वारा आता भव न बिगाड़।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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