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________________ २१८ अध्यात्म-कल्पद्रुम परिणामतः दूसरा धनवान और सुखी हुवा । पहला जैसा था वैसा हो रहा और दूसरे की ईर्षा करने लगा एवं मिला हुवा अवसर खोकर पछताने लगा। इसी तरह से मानव भव का सदुपयोग न करेंगे तो हमें भी पछताना पड़ेगा। शुद्ध देव गुरू धर्म ये रत्नद्वीप हैं,धर्म ही धन है । जो सावधान होकर व प्रमाद छोड़ कर इस धन को एकत्रित करते हैं वे दूसरे वणिक की तरह 'सुखी होंगे और जो संसार की मोह निद्रा में सोते रह जाएंगे वे पहले की तरह पछतावेंगे। १०. दो विद्याधरों का दृष्टांत वैताढय पर्वत पर दो विद्याधर (देव) रहते थे । गुरूजनों की सेवा कर उन्होंने विद्या प्राप्त की व उस विद्या की सिद्धि के लिए दो चण्डालों से विवाह की प्रार्थना कर दो कन्याएं प्राप्त की। ६ मास तक साधना करते हुए एक तो ब्रह्मचारी व दृढ़ रहा, दूसरा चंडाल कन्या के हाव भाव व मोह में फंस गया और चण्डाल कन्या के संसर्ग से भ्रष्ट होकर उस विद्या व पूर्व सिद्ध सभी विद्याओं को खो बैठा । प्रथम स्वस्थान में जाकर सब तरह से सुखी व राजा हुआ जब कि दूसरा चण्डाल बनकर वहीं रह गया। जैसे दूसरा विकार के वशीभूत होकर दोनों तरफ से भ्रष्ट हुआ और इन्द्रियों पर अंकुश रखने से पहला सुखी हुवा वैसे ही मनुष्य भी सब तरह के सन्मान व साधन मिलने पर जरा से लालच के कारण भ्रष्ट होता है और जीवन को घृणित व भ्रष्ट बना देता है। अतः हमें इस उदाहरण को पूरी तरह समझ कर मानव भव का सदुपयोग करना चाहिए।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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